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________________ जो जीव शुक्ललेश्यावान् होता है वह प्रथम के दोनों अप्रशस्त ध्यानों को छोड़कर अन्त के धर्म और शुक्ल इन दोनों का निरन्तर अभ्यास के द्वारा सम्पादन करने का प्रयत्न करता है तथा प्रशान्तचित्त और इन्द्रियों का दमन करने वाला, ईर्या, भाषा आदि समितियों से संयुक्त और तीन प्रकार की गुप्तियों से मन, वचन और काया के व्यापार का निरोध करने वाला होता है। जिस आत्मा में शुक्ललेश्या के परिणाम का सद्भाव होता है, वह आत्मा सरागी अर्थात् अल्पकषाय वाली अथवा वीतराग अर्थात् कषायों से सर्वथा रहित होती है तथा उपशम-रस में निमग्न और सब प्रकार से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाली होती है। किसी-किसी प्रति में 'साहए अर्थात् साधयेत्' के स्थान पर 'झायई अर्थात् ध्यायति' ऐसा पाठान्तर भी देखने में आता है। 'गुत्तिसु' यहां तृतीया के अर्थ में सप्तमी का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त दूसरी गाथा में 'उपशान्त' के स्थान पर 'शुद्धयोगो वा' ऐसा पाठान्तर भी दृष्टिगोचर होता है। इस पद का अर्थ है निर्दोष व्यापार। . इस प्रकार इन छहों लेश्याओं के लक्षणों का निर्वचन किया गया है। इनमें प्रथम की तीन लेश्याएं अप्रशस्त हैं और उत्तर की प्रशस्त कही गई हैं। तथा-कौन जीव किस लेश्या से युक्त है, इस बात का निर्णय करने के लिए ये पूर्वोक्त लक्षण बहुत ही उपयोगी हैं। अब लेश्याओं के स्थान-द्वार का वर्णन करते हैं. असंखिज्जाणोसप्पिणीण, उस्सप्पिणीण जे समया । संखाईया लोगा, लेसाण हवंति ठाणाइं ॥ ३३ ॥ असंख्येयानामवसर्पिणीनाम्, उत्सर्पिणीनां ये समयाः । संख्यातीता लोकाः, लेश्यानां भवन्ति स्थानानि ॥ ३३ ॥ पदार्थान्वयः-असंखिज्जाण-असंख्यात, ओसप्पिणीण-अवसर्पिणियों के-तथा, उस्सप्पिणीण-उत्सर्पिणियों के, जे-जितने भी, समया-समय हैं तथा, संखाईया-संख्यातीत, लोगा-लोक के यावन्मात्र प्रदेश हैं उतने ही, लेसाण-लेश्याओं के, ठाणाइं-स्थान, हवंति-होते हैं। मूलार्थ-असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणियों के जितने समय हैं तथा संख्यातीत लोक में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतने ही लेश्याओं के (शुभ-अशुभ दोनों प्रकार की लेश्याओं के) स्थान होते हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में काल और क्षेत्र से लेश्याओं के स्थान का वर्णन किया गया है। अन्त:करण में उत्पन्न होने वाले शुभ एवं अशुभ अध्यवसायों को "स्थान" कहा जाता है। इस संसार में अनादि काल से दो प्रकार के काल-चक्रों का अनुक्रम से भ्रमण होता रहता है। उसमें एक का नाम अवसर्पिणीकाल है और दूसरे को उत्सर्पिणीकाल कहते हैं। जिसमें पदार्थों के आयु, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३२५] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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