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________________ मूलार्थ-जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत अल्प हैं, तथा जो प्रशान्तचित्त और मन का निग्रह करने वाला है, योग और उपधान वाला, अत्यल्पभाषी, उपशान्त और जितेन्द्रिय है, इन लक्षणों से युक्त व्यक्ति पद्मलेश्या वाला होता है। टीका-प्रस्तुत गाथा-युग्म में पद्मलेश्या के लक्षणों का उल्लेख किया गया है। जिस आत्मा में पद्मलेश्या की परिणति होने लगती है उसमें क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषायों की मात्रा बहुत ही कम हो जाती है। कषायरूप अग्नि के शान्त होने से उसका चित्त भी शांति को प्राप्त हो जाता हैं तथा प्रशान्तचित्त होने से वह आत्मा मन के दमन करने में समर्थ हो जाती है। इसी कारण वह स्वाध्याय और श्रुत की आराधना में प्रवृत्ति करती है। इसके अतिरिक्त वह जीव अत्यल्प भाषण करने वाला, शान्त रस में निमग्न और इन्द्रियों को जीतने वाला होता है। अब शुक्ललेश्या के लक्षणों का वर्णन करते हैं, यथा अट्ट-रुददाणि वज्जित्ता, धम्म-सुक्काणि साहए। .. पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥ ३१ ॥ सरागे वीयरागे वा, . उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ॥ ३२ ॥ आरौिद्रे वर्जयित्वा, धर्मशुक्ले साधयेत् । प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा, समितो गुप्तश्च गुप्तिभिः ॥ ३१ ॥ सरागो वीतरागो वा, उपशान्तो जितेन्द्रियः । एतद्योगसमायुक्तः, शुक्ललेश्यां तु परिणमेत् ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-अट्टद्दाणि-आर्त और रौद्र को, वज्जित्ता-त्यागकर, धम्मसुक्काणि-धर्म और शुक्ल ध्यान की, साहए-साधना करे, पसंतचित्ते-प्रशान्तचित्त, दंतप्पा-दान्तात्मा, समिए-समितियों से समित, गुत्तिसु-गुप्तियों से, गुत्ते-गुप्त, य-प्राग्वत्, सरागे-रागसहित, वा-अथवा, वीयरागे-वीतराग, उवसंते-उपशान्त, जिइंदिए-जितेन्द्रिय, एय-इन, जोगसमाउत्तो-लक्षणों से युक्त जीव, सुक्कलेसं-शुक्ललेश्या को, परिणमे-परिणत होता है, तु-अवधारण के अर्थ में है। मूलार्थ-आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों को त्यागकर जो व्यक्ति धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानों का चिन्तन करता है तथा प्रशान्तचित्त, दमितेन्द्रिय, पांच समितियों से संमित और तीन गुप्तियों से गुप्त है, एवं अल्परागवान् अथवा वीतरागी, उपशम-निमग्न और जितेन्द्रिय है वह शुक्ललेश्या से युक्त होता है। ____टीका-इस गाथायुग्म में शुक्ललेश्या के लक्षणों का दिग्दर्शन कराया गया है। ध्यान के चार भेद हैं-आर्त्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान। इनमें पहले दोनों ध्यान अप्रशस्त होने से हेय हैं और अन्त के दोनों प्रशस्त होने से मुमुक्षु के लिए उपादेय हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३२४] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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