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________________ वा-अथवा, गोजिब्भाए-गोजिह्वा का स्पर्श, य-और, सागपत्ताणं-शाकपत्रों का स्पर्श होता है, एत्तो वि-उससे भी, अणंतगुणो-अनन्तगुणा अधिक खुरदुरा स्पर्श, अप्पसत्थाणं-अप्रशस्त, लेसाणं-लेश्याओं का होता है। मूलार्थ-जैसा स्पर्श करपत्र, गोजिह्वा और शाकपत्रों का होता है, उनसे भी अनन्तगुणा अधिक खुरदुरा स्पर्श अप्रशस्त लेश्याओं का होता है। टीका-कृष्ण, नील और कापोत, इन तीनों लेश्याओं का स्पर्श करपत्र अर्थात् आरी के अग्रभाग का स्पर्श, गोजिह्वा के स्पर्श और शाकपत्रों के स्पर्श से अनन्तगुणा अधिक कर्कश होता है। तथाच अप्रशस्त होने के कारण जिस प्रकार इनकी गन्ध में न्यूनाधिकता होती है, उसी प्रकार स्पर्श में भी न्यूनाधिकता अवश्य होती है। शाक-पत्र से अभिप्राय बिच्छू बूटी आदि का हो सकता है; क्योंकि उनके स्पर्शमात्र से शरीर में खुजली और जलन होने लगती है। ___ अब फिर इसी विषय में अर्थात् उत्तर की तीनों प्रशस्त लेश्याओं के स्पर्श के विषय में कहते हैं, यथा जह बूरस्स व फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एत्तो वि अणंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥ १९ ॥ यथा बूरस्य वा स्पर्शः, नवनीतस्य वा शिरीषकुसुमानाम् । . इतोऽप्यनन्तगुणः, प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः-जह-जैसे, बूरस्स-बूर नाम की वनस्पति का, फासो-स्पर्श, नवणीयस्स-नवनीत का स्पर्श, व-अथवा, सिरीसकुसुमाणं-शिरीष के पुष्पों का स्पर्श होता है; एत्तो वि-उससे भी, अणंतगुणो-अनन्तगुणा अधिक कोमल स्पर्श, तिण्हं पि-इन तीनों, पसत्थ-प्रशस्त, लेसाण-लेश्याओं ,का होता है, वि-प्राग्वत्। मूलार्थ-एक विशेष कोमल वनस्पति बूर, नवनीत अर्थात् मक्खन और शिरीष के पुष्पों का जितना कोमल स्पर्श होता है, उनसे भी अनन्तगुणा अधिक कोमल स्पर्श इन तीनों प्रशस्त लेश्याओं का हुआ करता है। ____टीका-तेज, पद्म और शुक्ल ये तीनों प्रशस्त लेश्याएं हैं। इनके स्पर्श की कोमलता बूर, नवनीत और सिरस के फूलों की कोमलता की अपेक्षा अनन्तगुणा अधिक है, परन्तु जैसे बूर, नवनीत और सिरस के पुष्पों की कोमलता और मृदुता में कुछ न्यूनाधिकता देखने में आती है, उसी प्रकार तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के स्पर्श की कोमलता और मृदुता में भी कुछ न्यूनाधिकता अवश्य होती है। अब लेश्याओं के परिणाम का वर्णन करते हैं, यथा तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहेक्कसीओ वा। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३१८] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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