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________________ अप्रशस्त है। तात्पर्य यह है कि जैसे गौ, श्वान और सर्प के मृतक शरीर में अत्यन्त दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है, उससे भी कहीं अनंतगुणा अधिक दुर्गन्ध इन लेश्याओं में होती है । इसीलिए इनको अप्रशस्त कहा गया है। कारण यह है कि इन तीनों के परमाणु अत्यन्त दुर्गन्धमय होते हैं। तथा जैसे गौ, और सर्प, इन तीनों के मृतक कलेवर में उत्पन्न होने वाली दुर्गन्ध में न्यूनाधिकता होती है, उसी प्रकार इन तीनों अप्रशस्त लेश्याओं की दुर्गन्ध में भी न्यूनाधिकता तो रहती ही है। श्वान अब आगे की तीन लेश्याओं की गन्ध का वर्णन करते हैं, यथा जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि अनंतगुणो, पसत्थलेसाण तिण्हं पि ॥ १७ ॥ यथा सुरभिकुसुमगन्धः, गन्धवासानां पिष्यमाणानाम् । इतोऽप्यनन्तगुणः, प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपि ॥ ९७ ॥ पदार्थान्वयः-जह-जैसे, सुरहि- सुगन्धि वाले, कुसुम - पुष्पों की, गंधो- गन्ध होती है, तथा पिस्समाणाणं- पिसे हुए, गंधवासाण - सुगन्धयुक्त पदार्थों की जैसी गन्ध होती है, एत्तो वि उससे भी, अनंतगुणो- अनन्तगुणा सुगन्ध, तिन्हं पि-तीनों ही, पसत्थलेसाणं - प्रशस्त लेश्याओं की होती है। मूलार्थ - केवड़ा आदि सुगन्धित पुष्पों अथवा सुगन्धयुक्त घिसे हुए चन्दनादि पदार्थों की जैसी प्रशस्त गंध होती है, उससे भी अनन्तगुणा प्रशस्त सुगन्ध इन तीनों ही लेश्याओं की होती है। टीका-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या, ये तीनों ही प्रशस्त लेश्याएं हैं, तथा केतकी आदि वृक्षों के जितने भी महासुगन्धित पुष्प हैं और कोष्ठपुटपाक आदि से अथवा सुगन्धिमय चन्दनादि पदार्थों के घिसने से भी जैसी उत्तम सुगन्ध निकलती है, उसकी अपेक्षा अनन्तगुणा अधिक सुगंध तेज, पद्म और शुक्ल- इन तीन प्रशस्त लेश्याओं की होती है। तात्पर्य यह है कि इन तीनों लेश्याओं के परमाणु उक्त सुगन्धिमय द्रव्यों की गन्ध से अनन्तगुणा प्रशस्त गन्ध वाले हैं। सुगन्ध के विषय में यहां पर भी न्यूनाधिकता की कल्पना कर लेनी चाहिए। अब स्पर्श-द्वार का वर्णन करते हैं तथा उसमें भी प्रथम की तीन अप्रशस्त लेश्याओं के स्पर्श का उल्लेख करते हैं, यथा जह करगयस्स फासो, गोजिब्भाए य सागपत्ताणं । एत्तो वि अनंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ॥ १८ ॥ यथा क्रकचस्य स्पर्शः, गोजिह्वायाश्च शाकपत्राणाम् । इतोऽप्यनन्तगुणो, लेश्यानामप्रशस्तानाम् ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः:- जह - जैसे, करगयस्स - करपत्र अर्थात् आरी के अग्र भाग का, फासो - स्पर्श, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३१७] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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