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________________ अपराध नहीं होता। टीका-तात्पर्य यह है कि अप्रिय भाव किसी को दुःखी नहीं करता, किन्तु उसके दु:खी होने का कारण उसका अपना द्वेषजन्य अध्यवसाय ही है, अर्थात् मन का वश में न होना ही प्रिय भाव में राग और अप्रिय में द्वेष को उत्पन्न करने वाला है। इसी से राग और द्वेष की परिणति होती है, अतः भाव की प्रियता और अप्रियता का इसमें कोई अपराध नहीं है। अब राग-द्वेष और उसके त्याग का फल वर्णन करते हुए फिर कहते हैंएगंतरत्ते रुइरंसि भावे, अतालिसे से कणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ९१ ॥ एकान्तरक्तो रुचिरे भावे, अतादृशे सः कुरुते प्रद्वेषम् । दुःखस्य सम्पीडामुपैति बालः, न लिप्यते तेन मुनिर्विरागी ॥ ९१ ॥ पदार्थान्वयः-एगंतरत्ते-एकान्त रक्त, रुइरंसि-रुचिर, भावे-भाव में, से-वह, अतालिसे-अमनोहर भाव में, पओसं-प्रद्वेष को, कुणई-करता है, बाले-अज्ञानी जीव, दुक्खस्स-दुःख की, संपीलं-पीड़ा को, उवेइ-प्राप्त होता है, तेण-उस दुःखसम्बन्धी पीड़ा से, विरागो-विरक्त, मुणी-मुनि, न लिप्पई-लिप्त नहीं होता। मूलार्थ-जो पुरुष मनोहर भाव में एकान्त रक्त अर्थात् अत्यन्त अनुरक्त और अमनोहर भाव में एकान्त द्वेष करने लगता है वह अज्ञानी जीव दुःख-सम्बन्धी पीड़ा से पीड़ित होता है, परन्तु जो विरक्त है वह उस दुःख-जन्य पीड़ा से लिप्त नहीं होता। टीका-इस गाथा में भी राग और द्वेष दोनों को ही पीड़ा का कारण बताया गया है। अब उक्त राग को हिंसा आदि आस्रवों का कारण बताते हुए फिर कहते हैं, यथाभावाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसड णेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥ ९२ ॥ भावानुगाशानुगतश्च जीवः, चराचरान्हिनस्त्यनेकरूपान् । चित्रैस्तान्परितापयति बालः, पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः ॥ ९२ ॥ पदार्थान्वयः-भावाणुगासाणुगए-भाव की आशा के पीछे भागता हुआ, जीवे-जीव, अणेगरूवे-अनेक जाति के, चराचरे-जंगम और स्थावर जीवों की, हिंसइ-हिंसा करता है, चित्तेहि-नाना प्रकार के शस्त्रों से, ते-उन जीवों को, बाले-अज्ञानी जीव, परितावेइ-परिताप देता है, किलिट्ठे-राग से आकृष्ट चित्त वाला, अत्तट्ठगुरू-अपने प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए, पीलेइ-जीवों को पीड़ा देता है। मूलार्थ-भाव की आशा के वशीभूत हुआ जीव अनेक जाति के जंगम और स्थावर जीवों की हिंसा करता है तथा नाना प्रकार के शस्त्र-प्रयोगों से उन जीवों को परिताप देता है और उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अल्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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