SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ-जो मनुष्य भाव-विषयक उत्कट राग रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, जैसे रागातुर और कामासक्ति में मूञ्छित हस्ती हस्तिनी के द्वारा मार्गापहृत होकर विनाश को प्राप्त हो जाता है। टीका-जैसे कोई मदोन्मत्त हस्ती दूर से ही जब किसी हस्तिनी को देखता है तब वह स्वमार्ग को छोड़कर उसके पीछे लग पड़ता है। इस प्रकार मानसिक भाव के वशीभूत हुए उस मार्गभ्रष्ट हस्ती को विषमस्थल-गर्तादि में डालकर मनुष्य पकड़ लेते हैं अथवा मार देते हैं। इसी प्रकार भाव के विषय में मूच्छित हुए पुरुष को भी अकाल में ही मृत्यु आकर दबोच लेती है। [करेणुमग्गावहिए व नागे-करेण्वा-करिण्या मार्गेण-निजपथेन-अपहृतः-आकृष्टः-करेणुमार्गापहृतः नाग इव-हस्तीव]। सारांश यह है कि हस्तिनी को देखकर उस पर मोहित हुआ मदोन्मत्त हस्ती जब उसके पीछे लग जाता है तब गर्त आदि में गिराकर अथवा चारों ओर से उसे घेर कर शिकारी उसको पकड़ लेते हैं। ___ यहां पर यदि कोई यह शंका करे कि चक्षु-इन्द्रिय के वशीभूत हुए हस्ती की इस प्रकार की दशा देखने में आती है तो फिर भाव को लेकर उक्त दृष्टान्त का देना कैसे संभव हो सकता है? इसका समाधान यह है कि यह वर्णन मन की प्रधानता को लेकर समझना चाहिए। कारण यह है कि यदि मन की उत्कट प्रवृत्ति न हो तो चक्षु के द्वारा देखे जाने पर भी हस्तिनी के पीछे लगा कर हस्ती को मार्ग से भ्रष्ट नहीं किया जा सकता और न ही हस्तिनी उसको अपना अनुगामी बना सकती है। इसीलिए जितनी भी इन्द्रियां हैं, वे सब मन के संयोग से ही अपने-अपने कार्यों में यथावत् प्रवृत्ति कर सकती हैं। यदि मन का उनसे पूर्ण सहयोग न हो तो आंखें देखती हुई भी नहीं देखतीं और कान सुनते हुए भी नहीं सुनते इत्यादि। अत: इन्द्रिय और विषय के संयोग में मन को ही प्रधान माना गया है। इसी विचार से उक्त भाव को लेकर उक्त दृष्टान्त दिया गया है। अब द्वेष की उत्कटता के विषय में कहते हैं, यथा जे यावि दोसं समवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि भावं अवरज्झई से ॥ ९० ॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्र, तस्मिन्क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किञ्चिद्भावोऽपराध्यति तस्य ॥ ९० ॥ पदार्थान्वयः-जे यावि-जो कोई भी-अप्रिय भाव में, तिव्वं-तीव्र, दोसं-द्वेष को, समुवेइ-उत्पन्न करता है, से-वह, तंसि क्खणे-उसी क्षण में, दुक्खं-दुःख को, उवेइ-पाता है, सएण-स्वकीय, दुदंत-दुर्दान्त, दोसेण-दोष से, जंतू-जीव-दु:ख पाता है, से-उसका, भावं-भाव, किंचि-किंचिन्मात्र भी, न अवरज्झई-अपराध नहीं करता, उ-वाक्यालंकार में है। मूलार्थ-जो कोई जीव अमनोज्ञ भाव में उत्कट द्वेष करता है वह उसी समय दुःखी हो जाता है, परन्तु वह स्वकृत दुर्दमनीय दोष के कारण ही दुःखी होता है, भाव का इसमें कोई उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७० ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy