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________________ अब भाव-सम्बन्धी ऊनोदरी - - तप का वर्णन करते हैं " इत्थी वा पुरिसो वा अलंकिओ वाऽनलंकिओ वावि । अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं व वत्थेणं ॥ २२ ॥ अन्नेण विसेसेणं, वण्णेणं भावमणुमुयंते । एवं चरमाणो खलु, भावोमाणं मुणेयव्वं ॥ २३ ॥ स्त्री वा पुरुषो वा, अलंकृतो वाऽनलंकृतो वाऽपि । अन्यतरवयःस्थो वा, अन्यतरेण व वस्त्रेण ॥ २२ ॥ अन्येन विशेषेण, वर्णेन भावमनुन्मुञ्चन् तु । एवं चरन् खलु, भावावमत्वं ज्ञातव्यम् ॥ २३ ॥ वा- अथवा, पदार्थान्वयः - इत्थी - स्त्री, वा- अथवा, पुरिसो- पुरुष, वा- अथवा, अलंकिओ - अलंकृत, ,अनलंकिओ - अनलंकृत, वा - अथवा, अवि-संभावना में, अन्नयर - अन्यतर, वयत्थो - अवस्था वाला, वा-अथवा, अन्नयरेणं - अन्यतर, वत्थेणं - वस्त्र से युक्त, व- समुच्चय में है, अन्नेण-अन्य, विसेसेणं- विशेष से, वण्णेणं-वर्ण से, भाव-भाव को अणुमुयंते- न छोड़ता हुआ, उ- अवधारणार्थक है, एवं - इस प्रकार, चरमाणो - आचरण करता हुआ, खलु - निश्चय में है, भावोमाणं - भाव - अवमौदर्य, मुणेयव्वं - जानना चाहिए। मूलार्थ - स्त्री अथवा पुरुष, अलंकार से युक्त व अलंकार - रहित तथा किसी वय वाला और किसी अमुक वस्त्र से युक्त हो, अथवा किसी विशेष वर्ण या भाव से युक्त हो, इस प्रकार आचरण करता हुआ अर्थात् उक्त प्रकार के दाताओं से भिक्षा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करने वाला साधु भाव - ऊनोदरी-तप वाला होता है। टीका - प्रस्तुत गाथाओं में भाव - ऊनोदरी - तप का वर्णन किया गया है। जैसे- भिक्षा- ग्रहण के लिए साधु इस प्रकार का अभिग्रह करे कि यदि अमुक स्त्री अथवा पुरुष अलंकार से युक्त हो वा रहित, बाल हो या युवा या वृद्ध, अमुक प्रकार के वस्त्रों से युक्त हो या अमुक रंग के वस्त्रों से विभूषित हो, हंसता हो या रोता हो, कोपयुक्त हो तथा कृष्णवर्ण हो या गौरवर्ण, इत्यादि निर्दिष्ट चिन्हों वाले दाताओं के हाथ से ही यदि भिक्षा मिलेगी तभी मैं ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं - इस प्रकार के अभिग्रह अर्थात् संकल्प को धारण कर भिक्षा के लिए जाना भाव - ऊनोदरी - तप कहलाता है । यहां पर इतना ध्यान रहे कि अभिग्रह करने का तात्पर्य यह है कि जितने समय के लिए अभिग्रह किया है, उतने समय तक यदि वह फलीभूत नहीं होता तो अभिग्रही का उतना समय विशिष्ट तपश्चर्या में व्यतीत होना चाहिए । प्रथम गाथा में आया हुआ 'वयत्थो - वयःस्थ' भी विचित्र भाव का सूचक है अर्थात् बाल, युवा और वृद्ध सभी प्रकार के जीवों को दान देने का अधिकार है और सभी की रुचि दान देने में बनी रहनी चाहिए। दूसरी गाथा में जो 'विशेष' शब्द का उल्लेख किया है उसका अभिप्रायः यह है कि अभिग्रह उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१८६ ] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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