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________________ दिवसस्य पौरुषीणां, चतसृणामपि तु यावान् भवेत् कालः । . एवं चरन् खलु, कालावमत्वं ज्ञातव्यम् ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः-दिवसस्स-दिन की, चउण्हं पि-चार ही, पोरुसीण-पोरुषियों का, जत्तिओ-यावन्मात्र, कालो-अभिग्रह काल, भवे-होवे, एवं-इस प्रकार, चरमाणो-विचरते हुए, खलु-निश्चय में, कालोमाणं-कालावमौदर्य, मुणेयव्वं-जानना चाहिए। मूलार्थ-दिन के चार पहरों में से यावन्मात्र अभिग्रह-काल हो उसमें आहार के लिए जाना कालसम्बन्धी-अवमौदर्य-ऊनोदरी-तप है। टीका-दिन के चार प्रहर होते हैं। प्रत्येक का नाम पौरुषी है। इन चार प्रहरों में इस बात का अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना कि आज मैं अमुक प्रहर में भिक्षा के लिए जाऊंगा, उसके अतिरिक्त अन्य प्रहरों में भिक्षा लेने का मैं त्याग करता हूं। यदि नियत किए हुए समय पर भिक्षा मिल जाए तो वह आहार कर सकता है अन्यथा उपवास करना होगा, बस इसी का नाम काल-सम्बन्धी-ऊनोदरी-तप है। क्योंकि प्रतिज्ञात समय से अतिरिक्त समय में जाने का वह त्याग कर चुका है। 'चरमाणो' यहां पर 'सुप्' का व्यत्यय किया हुआ है और 'पौरुषी' शब्द प्रहर के अर्थ में है। अब प्रकारान्तर से उक्त विषय का वर्णन करते हैं - अहवा तइयाए पोरिसीए, ऊणाए घासमेसंतो । चउभागूणाए वा; एवं कालेण ऊ भवे ॥ २१ ॥ अथवा तृतीयायां पौरुष्याम्, ऊनायां ग्रासमेषयन् । चतुर्भागोनायां वा, एवं कालेन तु भवेत् ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः-अहवा-अथवा, तइयाए-तीसरी, पोरिसीए-पौरुषी में, ऊणाए-ऊनी में, घासं-ग्रास की, एसंतो-अन्वेषणा करता हुआ, चउभागूणाए-चतुर्थभाग न्यून तृतीय पौरुषी में, वा-अथवा पांचवें भाग से न्यून, एवं-इस प्रकार, कालेण-काल से, भवे-होता है-ऊनोदरी तप, ऊ-प्राग्वत्। ____ मूलार्थ-अथवा कुछ न्यून तीसरी पौरुषी में या चतुर्थ में और पंचम भाग न्यून पौरुषी में भिक्षा लाने की प्रतिज्ञा करना भी काल-सम्बन्धी ऊनोदरी-तप है। ___टीका-तृतीय पौरुषी में आहार लाने की आज्ञा है, परन्तु तृतीय पौरुषी के भी दो-दो घड़ी-प्रमाण चार भाग होते हैं। उन चार भागों में भी किसी एक भाग में ही भिक्षार्थ जाना और यदि उतने समय में भिक्षा उपलब्ध न हो तो वैसे ही सन्तुष्ट रहने का जो अभिग्रह अर्थात् नियम है, उसको काल-ऊनोदरी-तप कहा है। तात्पर्य यह है कि एक पौरुषी के चार भाग कल्पना करके उनमें से ग्रहण किए गए भाग में ही भिक्षा के लिए जाना अन्य में नहीं। इसीलिए उक्त गाथा में 'पोरिसीए ऊणाए' अर्थात् पौरुषी के न्यून भाग में-वा चतुर्थ भाग न्यून में ऐसा उल्लेख किया है, परन्तु यह उत्सर्गसूत्र है। अपवादसूत्र में तो काले कालं समायरे' अर्थात् जिस क्षेत्र में जो समय भिक्षा का होवे, उस समय के अनुसार अपने-अपने धार्मिक क्रियानुष्ठान में तथा नियमादि में व्यवस्था कर लेवे। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१८५] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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