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________________ जहा महातलायस्स, सन्निरुद्धे जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ ५ ॥ यथा महातडागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे । उत्सिञ्चनेन तपनेन, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः-जहा-जैसे, महातलायस्स-महान् तालाब के, जलागमे-जल के आने के मार्ग का, संनिरुद्धे-निरोध किए जाने पर, उस्सिचणाए-उलीचने से, तवणाए-सूर्य के ताप से, कमेणं-क्रम से, सोसणा-सुखाया जाना, भवे-होता है। मूलार्थ-जिस प्रकार किसी बड़े तालाब का पानी, जल के आने के मार्गों का निरोध करने से, पानी को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः सुखाया जाता है-(आगे की गाथा से सम्बन्ध करके अर्थ करना चाहिए। ___टीका-प्रस्तुत गाथा में कर्मों का क्षय करने के मार्ग को दृष्टान्त द्वारा प्रस्तावित किया गया है। जैसे किसी बड़े भारी तालाब का पानी सुखाने के लिए प्रथम उसमें जल के आने के मार्गों को रोका जाता है, फिर उसमें रहे हुए जल को उलीचकर बाहर फेंका जाता है और शेष जल को सूर्य के ताप से सुखाया जाता है-[इसका आगे की गाथा से सम्बन्ध है]। एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।। भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ॥ ६ ॥ एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिरास्त्रवे। भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीर्यते ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-एवं-उसी प्रकार, संजयस्सावि-संयत के भी, पावकम्मनिरासवे-पाप-कर्म के निरास्रव-विषय में, भवकोडी-करोड़ भवों का, संचियं-संचित किया हुआ, कम्मं-पापकर्म, तवसा-तप से, निजरिज्जइ-निर्जीर्ण किया जाता है। मूलार्थ-उसी प्रकार संयमी पुरुष के नवीन पाप कर्म भी [ व्रत आदि के द्वारा ] निरास्त्रव अर्थात् निरुद्ध कर दिए जाते हैं और करोड़ों भवों अर्थात् जन्मों के संचित किए हुए पाप-कर्म तप के द्वारा निर्जीर्ण किए जाते हैं। टीका-उसी प्रकार संयम शील साधक के भी नए पाप-कर्मों के आने के मार्गों का व्रत आदि के द्वारा निरोध किया जाता है। फिर उसमें अनेक जन्मों के संचित किए हुए पापकर्मों को तप द्वारा नष्ट किया जाता है। यहां पर तालाब के समान भिक्षु और तालाब में भरे हुए जल के समान करोड़ों जन्मों के संचित किए हुए पाप कर्म, तथा जल के आने के मार्ग आस्रव हैं। जिस प्रकार तालाब में भरे हुए जल को यंत्रादि के द्वारा उलीच कर बाहर निकाल दिया जाता है, अथवा सूर्य के आतप से सुखा दिया जाता है, उसी प्रकार आत्मा में संचित हुए अनेक जन्मों के पाप-कर्मों का तपश्चर्या के द्वारा क्षय कर मानरास्त्रव। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७४ ] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं ।
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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