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________________ से रहित, जीवो-जीव, अणासवो-आस्रव-रहित, होइ-होता है। मूलार्थ-पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त, कषाय-रहित, जितेन्द्रिय और तीन प्रकार के गर्त तथा तीन प्रकार के शल्यों से रहित जो जीव है वह अनास्त्रवी होता है। टीका-ईया-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-निक्षेप-समिति और परिष्ठापना-समिति, इन पांच समितियों तथा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति, इन तीन गुप्तियों का वर्णन पीछे आ चुका है। क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषाय की संज्ञा से प्रसिद्ध हैं। इन्द्रियों को जीतने अर्थात् वश में रखने वाला जितेन्द्रिय है। ऋद्धिगर्व, सातागर्व और रसगर्व, ये तीन प्रकार के गर्व माने गए हैं तथा माया, निदान और मिथ्यादर्शन ये तीन शल्य हैं। ऊपर जो कुछ बताया गया है, वह सब अनास्रव अर्थात् आस्रवरहित होने का साधन बताया गया है। जैसे-पांचों समितियों का पालन करना, तीनों गुप्तियों का आराधन करना, चार प्रकार के कषायों से रहित होना, इन्द्रियों का दमन करना, तीन प्रकार के अभिमान और शल्यों से रहित होना, ये सब अनास्रवता के हेतु हैं, अत: इन उक्त साधनों का अनुष्ठान करने वाला जीव अनास्रवी कहा जाता है। अब कर्मक्षय की विधि का वर्णन करते हैं, यथा - एएसिं त विवच्चासे, रागदोससमज्जियं । खवेइ छ जहा भिक्खू, तं मे एगमणो सुण ॥ ४ ॥ एतेषां तु विपर्यासे, रागद्वेषसमर्जितम् । क्षपयति तु यथा भिक्षुः, तन्मे एकमनाः श्रृणु ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन उक्त गुणों के, विवच्चासे-विपर्यास से, रागदोस-राग और द्वेष से, समज्जियं-उपार्जन किया हुआ कर्म, जहा-जिस प्रकार, भिक्खू-भिक्षु, खवेइ-खपाता है, तं-उसको, मे-मुझसे, एगमणो-एकमन होकर, सुण-श्रवण करो। मूलार्थ-इन उक्त गुणों से विपरीत दोषों के द्वारा राग-द्वेष से अर्जित किए हुए कर्म को जिस विधि से भिक्षु नष्ट करता है उसको तुम एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो। टीका-प्रस्तुत गाथा में कर्मों के क्षय करने के प्रकार को बताने की प्रतिज्ञा की गई है। आचार्य कहते हैं कि जिस विधि से भिक्षु संचित किए हुए पाप-कर्मों का क्षय करता है, उस विधि को मैं तुम्हारे प्रति वर्णन करता हूं तुम एकाग्रचित होकर सुनो। तात्पर्य यह है कि अहिंसादि गुणों के विपरीत आस्रव के हेतु जो दोष हैं, उनके द्वारा राग-द्वेष से पाप-कर्मों का संचय किया जाता है। उन संचित किए हुए पाप-कर्मों को नष्ट करने का जो मार्ग है, उसको बताने की प्रस्तुत गाथा में प्रतिज्ञा की गई है। ... उक्त प्रतिज्ञा के अनुसार कर्म-क्षय का प्रकार बताते हुए प्रथम एक दृष्टान्त के द्वारा उसकी भूमिका प्रस्तुत करते हैं, यथा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१७३] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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