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________________ उत्तर-काल-प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। टीका-यहां पर 'काल' शब्द से स्वाध्याय-काल का ग्रहण करना चाहिए। आगम-विहित जो प्रदोषिकादि काल हैं उनमें यथाविधि निरूपण-ग्रहण करना, तथा प्रतिजागरणा अर्थात् समय का विभाग करके उसके अनुसार क्रियाएं करना, यह काल-प्रतिलेखना है। काल-प्रतिलेखना के फल के विषय में शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हुए गुरु कहते हैं कि काल-प्रतिलेखना अर्थात् प्रत्युपेक्षणा के द्वारा यह जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर देता है। कारण यह है कि समय-विभाग में आत्मा को प्रमाद-रहित होना पड़ता है और उपयोग रखना पड़ता है। उसका फल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। कदाचित् अकाल में स्वाध्याय किया गया हो तो उसका प्रायश्चित करना चाहिए, अतः अब प्रायश्चित के विषय में कहते हैं - . पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । पायच्छित्तेगं पावकम्मविसोहिं जणयइ। निरइयारे आवि भवइः सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ, आयारफलं च आराहेइ ॥ १६ ॥ प्रायश्चित्तकरणेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रायश्चित्तेन पापकर्मविशुद्धिं जनयति। निरतिचारश्चापिभवति। सम्यक् च प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानः (सम्यक्त्व-) मार्गञ्च (सम्यक्त्व-) मार्गफलञ्च विशोधयति, आचारञ्चाचारफलञ्चाराधयति ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः-पायच्छित्तकरणेणं-प्रायश्चित के करने से, भंते-हे भगवन् ! जीवे-जीव, किं जणयइ-किस फल की प्राप्ति करता है? पायच्छित्तेणं-प्रायश्चित्त से, पावकम्मविसोहिं-पापकर्म की विशुद्धि का, जणयइ-उपार्जन करता है, च-फिर, सम्म-भली प्रकार, पायच्छित्तं-प्रायश्चित्त को, पडिवज्जमाणे-ग्रहण करता हुआ, निरइयारे आवि-निरतिचार भी, भवइ-हो जाता है, च-तथा, मग्गं-मार्ग की, च-और, मग्गफलं-मार्ग के फल की, विसोहेइ-विशुद्धि करता है, आयारं-आचार की, च-और, आयारफलं-आचार के फल की, आराहेइ-आराधना करता है। मूलार्थ-(प्रश्न)-हे पूज्य ! प्रायश्चित करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है? उत्तर-हे शिष्य ! प्रायश्चित्त से यह जीव पाप-कर्म की विशुद्धि कर लेता है, फिर वह निरतिचार-व्रत के अतिचारों अर्थात् दोषों से रहित हो जाता है तथा सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त को ग्रहण करता हुआ ज्ञान-मार्ग और उसके फल की विशुद्धि करता है और . आचार तथा आचार के फल की आराधना कर लेता है। ___टीका-जिसके करने से पापों का विच्छेद हो जाए उसे प्रायश्चित्त कहते हैं, इसलिए आलोचनादि प्रायश्चित्त से पापों की विशुद्धि होती है और पापों की विशुद्धि से इस जीव का चारित्र निरतिचार अर्थात् उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११८] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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