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________________ टीका-प्रस्तुत सूत्र में अरिहंत और सिद्ध भगवान् की स्तुति करने का फल प्रदर्शन किया गया है। शिष्य के पूछने पर कि भगवन् ! स्तव-स्तुतिमंगल-पाठ के करने से इस जीव को क्या फल मिलता है? गुरु उत्तर देते हैं कि हे भद्र ! स्तवस्तुतिमंगल-पाठ का फल ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप बोधि-लाभ की प्राप्ति है और बोधि-लाभ को प्राप्त करने वाला जीव अन्तक्रिया अर्थात् मोक्ष की आराधना-प्राप्ति करता है अथवा कल्प-देवलोकों में, या नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर-विमानों में उत्पन्न होता है। इसका तात्पर्य यह है कि बोधि-लाभ से संसार का अन्त करने वाली अथवा कर्मों का क्षय करने वाली अर्थात् जिस क्रिया के अनुष्ठान से अन्त में अन्तक्रिया अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है उस अन्तक्रिया को प्राप्त करता है। सारांश यह है कि यदि इस जीव के समस्त घाति-कर्मों का क्षय हो गया हो तब तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है और यदि कुछ कर्म बाकी रह गए हों, तब वह आत्मा नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तर-विमान तथा कल्प-विमानों में-जो कि स्वर्ग में सब से उत्तम स्थान है वहां उत्पन्न होती है। वहां से च्यव कर उत्तम मानव-भव को प्राप्त करके अन्त में मोक्ष को प्राप्त करती है। यही स्तुतिमंगल-पाठ की आराधना का फल है। कर्मों की विलक्षणता से अन्तक्रिया के भी चार-भेद वर्णन किए गए हैं। १. अल्पसंयम, अल्पवेदना-जैसे मरुदेवी माता। २. अल्पसंयम, बहुवेदना-जैसे गजसुकुमाल। ३. बहुकालसंयम, अल्पवेदना-जैसे भरत चक्रवती। ४. बहुकालसंयम, बहुवेदना-जैसे सनतकुमार चक्रवर्ती। इस प्रकार अन्तक्रिया के चार भेद कहे गए हैं। . थयथुइ-स्तव-स्तुति' में प्राकृत के कारण प्रत्यय-व्यत्यय अर्थात् 'क्ति' प्रत्ययान्त का परनिपात किया गया है। एवं स्तव शब्द से यहां पर शक्र-स्तव का ग्रहण है और स्तुति से एकादि सप्तश्लोकान्त स्तुति का अर्थात् चतुर्विंशतस्तव का ग्रहण करना चाहिए और मंगल शब्द इनकी विशिष्टता का द्योतक है। स्तुतिपाठ के अनन्तर अब कालप्रत्युपेक्षणा अर्थात् प्रतिलेखना के विषय में कहते हैं - कालपडिलेहणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । कालपडिलेहणयाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ ॥ १५ ॥ कालप्रतिलेखनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? कालप्रतिलेखनया ज्ञानावरणीयं कर्म क्षपयति ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः-कालपडिलेहणयाएणं-कालप्रतिलेखना से, भंते-हे भगवन् ! जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या फल प्राप्त करता है, कालपडिलेहणयाएणं-काल-प्रति-लेखना से, नाणावरणिज्जं कम्म-ज्ञानावरणीय कर्म को, खवेइ-खपाता है। मूलार्थ-(प्रश्न)-हे पूज्य ! स्वाध्यायादि काल की प्रतिलेखना से जीव किस फल की प्राप्ति करता है? • उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [११७] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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