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________________ षोडशाध्ययनम् ].. हिन्दीभाषाटीकासहितम् । । [ ६६३ ... पदार्थान्वयः-सुयं-सुना है मे-मैंने आउसं-हे आयुष्मन् ! तेणं-उस भगवया-भगवान् ने एवं-इस प्रकार अक्खायं-कथन किया है इह-इस क्षेत्र में वा इस प्रवचन में खलु-निश्चय ही थेरेहि-स्थविरों ने भगवंतेहिं-भगवंतों ने दसदस बम्भचेर-ब्रह्मचर्य के समाहिठाणा-समाधि-स्थान पन्नता-प्रतिपादन किये हैं जे-जिनको भिक्खू-भिक्षु सुच्चा-सुन करके निसम्म-विचार करके संजमबहुले-संयमबहुल संवरबहुले-संवरबहुल समाहिबहुले-समाधिबहुल गुत्ते-मन, वचन और काया जिसके गुप्त हैं गुत्तिदिए-गुप्तेन्द्रिय गुत्तबम्भयारी-गुप्तियों के सेवन से गुप्त ब्रह्मचारी सया-सदा अप्पमत्ते-अप्रमत्त होकर विहरेजा-विचरे । मूलार्थ हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उस भगवान् ने इस प्रकार कहा है-इस क्षेत्र वा जिनशासन में स्थविर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य के दश समाधि-सान प्रतिपादन किये हैं, जिनको भिक्षु सुनकर और हृदय में विचार कर धारण करे, जिससे कि संयमबहुल; संवरबहुल, समाधिबहुल और मन वचन कायगुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी सदा अप्रमत्त होकर विचरे । टीका-श्रीसुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उस भगवान् ने इस प्रकार कथन किया है-इस क्षेत्र में वा इस प्रवचन में पूज्य गणधरों ने दश प्रकार के ब्रह्मचर्य के समाधि-स्थानों का प्रतिपादन किया है, जिन समाधि-स्थानों को शब्द से सुनकर, और अर्थ से सुनिश्चित करके, संयम बहुत करे, संवर बहुत करे और समाधि की प्राप्ति करे । क्योंकि समाधि की बहुलता ब्रह्मचर्य पर ही अवलंबित है । फिर मन, वचन और काया को वश में करे तथा पाँचों . इन्द्रियों को विषयों से हटाकर गुप्तेन्द्रिय होवे । एवं ब्रह्मचर्य की नवगुप्तियों के सेवन से गुप्तब्रह्मचारी और सदा अप्रमत्त होकर विचरे अर्थात् अप्रतिबद्धविहारी होकर देश में विचरण करे । इस गाथा में संयम की बहुलता आदि के कथन से ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के फल का भी निर्देश कर दिया गया है तथा ब्रह्मचर्य को समाधि का मुख्य स्थान बतलाया है क्योंकि इसके विना चित्त की समाधि नहीं हो सकती। यहाँ "संजमबहुले" इस पद में 'बहुल' शब्द का अर्थ है प्रभूत गुणों को उत्पन्न करने वाला । 'बहु' का अर्थ है अत्यन्त लातीति 'ल:' अर्थात् जो अधिक गुणों का उत्पादक हो, वह बहुल है। अब शिष्य प्रश्न करता है । यथा
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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