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________________ चतुर्दशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [६३५ दिया, यही उसके उपदेश की सफलता है । तब इसी अभिप्राय को प्रकट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि राज्य और कामभोगादि विषयों का परित्याग करने से वे दोनों निर्विषय अर्थात् विषयों से रहित हो गये। विषयरहित होने से आमिषतुल्य धनधान्यादि पदार्थों से उनकी आसक्ति जाती रही। अतएव वे निरामिष बन गये। निरामिष होने से उनका किसी पर भी ममत्व न रहा । इसलिये वे निःस्नेह अर्थात् स्नेह-प्रीतिराग—से रहित हो गये । स्नेह से रहित होना ही निष्परिग्रह होना अर्थात् परिग्रह से रहित होना है क्योंकि मूर्छा का नाम ही परिग्रह है- "मुच्छापरिग्गहो वुत्तो" । अतः वे दोनों परिग्रह से भी रहित हो गये । तात्पर्य कि उन्होंने द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से संयम को अपना लिया। इसके अनन्तर उन दोनों की क्या चर्या रही, अब इसी विषय को प्रतिपादन करते हैं सम्मं धम्मं वियाणित्ता, चिच्चा कामगुणे वरे। तवं पगिज्झहक्खायं, घोरं घोरपरकमा ॥५०॥ सम्यग् धर्म विज्ञाय, त्यक्त्वा कामगुणान् वरान् । तपः प्रगृह्य यथाख्यातं, घोरं घोरपराक्रमौ ॥५०॥ पदार्थान्वयः-सम्म-सम्यक् धम्म-धर्म को वियाणित्ता-जानकर वरेश्रेष्ठ--प्रधान कामगुणे-कामगुणों को चिच्चा-त्यागकर तवं-तपकर्म अहक्खायंयथाख्यात--अर्हतादि ने जिस प्रकार से वर्णन किया है घोरं-अति विकट पगिभग्रहण करके घोरपरक्कमा-घोर पराक्रम वाले हुए। मूलार्थ-धर्म को सम्यक--भली प्रकार से जानकर, प्रधान कामभोगों को छोड़कर तीर्थकरादि द्वारा प्रतिपादन किये हुए घोर तप कर्म को स्वीकार करके वे दोनों घोर पराक्रम वाले हुए। टीका-इस गाथा का भावार्थ यह है कि उन दोनों-राणी और राजा ने श्रुत और चारित्र रूप धर्म को भली भांति जानकर संसार के प्रधान से प्रधान विषयभोगों का भी परित्याग कर दिया, जिनका कि त्याग करना बहुत ही कठिन है। इसके
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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