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________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम्। [११३७ भिक्खेणं-भिक्षा से अम्हं-हमारे ऊपर अणुग्गह-अनुग्रह करेह-करो भिक्खुउत्तमाहे भिक्षुओं में उत्तम ! - मूलार्थ हे परमोत्तम भिक्षु ! आप अपने और पर के आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हो । इसलिए आप भिक्षा द्वारा हमारे ऊपर अनुग्रह करो। .. टीका-प्रस्तुत गाथा में जयघोष मुनि की स्तुति करते हुए साथ में उनसे भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की गई है। विजयघोष कहते हैं कि आप भिक्षुओं में उत्तम भिक्षु हैं और आप तत्त्ववेत्ता होने के कारण 'ख' और 'पर' के उद्धार करने की भी अपने आत्मा में पूर्ण शक्ति रखते हैं। अतः आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप भिक्षा द्वारा हमारे ऊपर अनुग्रह करें अर्थात् भिक्षा लेकर हमें अनुगृहीत करें। तात्पर्य यह है कि आप यहाँ से भिक्षा अवश्य ग्रहण करें । यहाँ पर इतना स्मरण रहे कि विजयघोष ने जयघोष मुनि की सेवा में भिक्षा के लिए जो प्रार्थना की है, वह भावपूर्ण और शुद्ध हृदय से की है । अतः प्रत्येक सद्गृहस्थ को योग्य पात्र का अवसर प्राप्त होने पर अपने अन्तःकरण में इसी प्रकार के भावों को स्थान देना चाहिए। विजयघोष की इस प्रार्थना के उत्तर में जयघोष मुनि ने जो कुछ कहा, अब उसका निरूपण करते हैंन कजं मझ भिक्खेण, खिप्पं निक्खमसू दिया। मा. भमिहिसि भयावट्टे, घोरे संसारसागरे ॥४०॥ न कार्य मम भैक्ष्येण, क्षिप्रं निष्काम द्विज ! मा भ्रम भयावर्ते, घोरे संसारसागरे ॥४०॥ पदार्थान्वयः-मझ-मुझे भिक्खेण-भिक्षा से न कजं-कार्य नहीं है दिया-हे द्विज ! खिप्पं निक्खमसू-तू शीघ्र ही दीक्षा को ग्रहण कर मा भमिहिसिमत भ्रमण कर भयावढे-भयों के आवर्त वाले घोरे-भयंकर संसारसागरे-संसार रूप समुद्र में। मूलार्थ--हे द्विज ! मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन नहीं, तू शीघ्र ही दीचा ग्रहण कर और भयों के आवते वाले इस पोर संसारसागर में भ्रमण मत कर।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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