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________________ ६१८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [विंशतितमाध्ययनम् तुट्ठो य सेणिओ राया, इणमुदाहु कयंजली । अणाहयं जहाभूयं, सुट्ठ मे उवदंसियं ॥५४॥ तुष्टश्च खलु श्रेणिको राजा, इदमुदाह कृताञ्जलिः । अनाथत्वं यथाभूतं, सुष्टु मे उपदर्शितम् ॥५४॥ पदार्थान्वयः-तुट्ठो-हर्षित हुआ सेणिओ-श्रेणिक राया-राजा य-पुनः इणम्-यह वचन उदाहु-कहने लगा कयंजली-हाथ जोड़कर अणाहयं-अनाथपन जहाभूयं यथाभूत सुट्ठ-भली प्रकार मे-मुझे उवदंसियं-उपदर्शित किया। मूलार्थ-राजा श्रेणिक हर्षित होकर और हाथ जोड़कर कहने लगा कि भगवन् ! अनाथता का यथार्थ स्वरूप भली प्रकार से आपने मुझको दिखला दिया। - टीका-अनाथी मुनि के उपदेश को सुनकर अति प्रसन्नता को प्राप्त हुए महाराजा श्रेणिक हाथ जोड़कर कहने लगे कि हे भगवन् ! आपने मेरे ऊपर बड़ा अनुग्रह किया, जो कि अनाथभाव-अनाथता के रहस्य को मेरे प्रति सम्यक् प्रकार से वर्णन करके बतला दिया । तात्पर्य यह है कि आपने मेरे प्रति अन्वय-व्यतिरेक से अनाथता का जो स्वरूप कहा है, उसको समझकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। वास्तव में जब किसी भद्र पुरुष को किसी से अपूर्व अर्थ की प्राप्ति होती है तो वह हृदय से उस व्यक्ति का अभिनन्दन करने को ललचाता है। इसी आशय से महाराजा श्रेणिक ने साञ्जलि होकर अनाथी मुनि से अपना हार्दिक भाव' व्यक्त करने का साहस किया है। अब फिर कहते हैंतुझ सुलद्धं खु मणुस्सजम्म, लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी ! तुब्भे सणाहा य सबन्धवा य, जं भे ठिया मग्गि जिणुत्तमाणं ॥५५॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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