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________________ सप्तदशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [७१६ vvvvvvvvvNAAAAAAAAAAAAAAM जो साधु अपने परिचितों के घर से भिक्षा लाता और गृहस्थों के घर में जाकर उनके बिछौने आदि पर बैठता या सोता है, वह शास्त्राज्ञा के विरुद्ध आचरण करने से पापश्रमण कहा जाता है । अतः अपने परिचित और सम्बन्धिजनों के घरों से सरस और स्निग्ध आहार लाकर खाने तथा गृहस्थों के पात्र, वस्त्र और शय्या आदि का उपयोग करने में जिन दोषों के उत्पन्न होने की संभावना है उनका विचार करते हुए संयमशील साधु को इनके सम्पर्क से सर्वथा अलग रहना चाहिए। प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए, उक्त दोषों के सेवन और त्याग का जो फल है, अब शास्त्रकार इसी विषय का वर्णन करते हैंएयारिसे · पंचकुसीलसंवुडे, रूवंधरे मुणिपवराण हेडिमे। अयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव परत्थ लोए । एतादृशः पञ्चकुशीलसंवृतः, ___रूपधरो मुनिप्रवराणामधोवर्ती । अस्मिंल्लोके विषमिव गर्हितः, - न स इह नैव परत्र लोके ॥२०॥ पदार्थान्वयः-एयारिसे-एतादृश पंचकुसीलसंवुडे-पाँच कुशीलों से संवृतयुक्त रूवंधरे-साधु के वेष को धारण करने वाला मुणिपवराण-प्रधान मुनियों के मध्य में हेडिमे-अधोवर्ती है अयंसि लोए-इस लोक में विसमेव-विष की तरह गरहिएनिन्दनीय है न से-न वह इहं-इस लोक में नेव-और नहीं परत्थ लोए-परलोक में । ____ मूलार्थ-उक्त कहे हुए पाँच कुशीलों से युक्त, अथच संवर से रहित और साधु के वेष को धारण करने वाला, प्रधान मुनियों के मध्य में अधोवती और इस लोक में विष के समान निन्दनीय है, तथा उसके यह लोक और परलोक दोनों ही नहीं सुधरते ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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