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________________ ७१८ ] उत्तराध्ययन सूत्रम् [ सप्तदशाध्ययनम् गृहस्थों के लिए क्रय-विक्रय रूप व्यवहार करता है या उनसे करवाता है अथच निमित्त के द्वारा - शुभाशुभ कथन के द्वारा धन उपार्जन करता है, उपलक्षण से गृहस्थों केही कामों में लगा रहता है, वह पापश्रमण कहलाता है । तात्पर्य कि जब गृहस्थ के आचार व्यवहार को छोड़कर संन्यासी हुआ और फिर भी गृहस्थों के ही कामों में लिपटे तो साधु और गृहस्थ में विशेषता ही क्या रही ? इसलिए जो श्रेष्ठ एवं संयमशील साधु हैं, वे गृहस्थसम्बन्धी कार्यों तथा क्रय-विक्रय रूप व्यापारों से सदा और सर्वथा अलग रहते हैं ताकि उनमें पापश्रमण की जघन्य प्रवृत्ति होने न पाय । अब फिर पूर्वोक्त विषय में कहते हैं सन्नाइपिण्डं जेमेइ, नेच्छई सामुदाणियं । गिहिनिसेखं च वाहेइ, पावसमणि त्ति वुच्चई ॥१९॥ खज्ञातिपिण्डं भुङ्के, नेच्छति सामुदानिकम् । गृहिनिषद्यां च वाहयति, पापश्रमण इत्युच्यते ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः -- सन्नाइपिण्डं - अपनी जाति - अपने ज्ञातिजनों के आहार को जैमेइ-भोगता है नेच्छई-नहीं चाहता सामुदाणियं - बहुत घरों की भिक्षा चऔर गिहिनिसेजं - गृहस्थ की शय्या पर वाहे चढ़ जाता है— बैठ जाता है पावसमणि त्ति - पापश्रमण इस प्रकार बुच्चई - कहा जाता है । मूलार्थ - जो अपने ज्ञातिजनों के आहार को भोगता है, बहुत घरों की भिक्षा को नहीं चाहता और गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पापश्रमण कहलाता है । टीका - जो साधु अपने सम्बन्धी जनों के घरों से ही आहार लाकर खाता है किन्तु सामुदयिक गोचरी नहीं करता अर्थात् अन्य सामान्य घरों से भिक्षा लाने की इच्छा नहीं करता तथा गृहस्थों के घरों में जाकर उन्हीं के बिस्तरों पर आराम से लेटता है, वह पापश्रमण है । इसका आशय यह है कि साधु का आचार प्रतिदिन किसी अमुक परिचित दो चार घरों से भिक्षा लाकर खाने का नहीं है तथा केवलमात्र अपने किसी सम्बन्धी के ही घर से भिक्षा लाकर खाने की उसके लिए आज्ञा नहीं और न किसी गृहस्थ की शय्या पर बैठने की उसे आज्ञा है परन्तु विपरीत इसके
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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