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________________ ७०४ उत्तराध्ययनसूत्रम् [ सप्तदशाध्ययनम् शय्या दृढा प्रावरणं मेऽस्ति, उत्पद्यते भोक्तुं तथैव पातुम् । - जानामि यद्वर्तत आयुष्मन्निति, किंनाम करिष्यामिश्रुतेन भगवन् ॥२॥ पदार्थान्वयः-सिज्जा-शय्या दढा-दृढ़ पाउरणं-वस्त्र मि-मेरे अत्थि-है. उप्पञ्जई-उत्पन्न हो जाता है भोत्तु-खाने के लिए तहेव-तथैव पाउं-पीने के लिए जाणामि-जानता हूँ जं वट्टइ-जो बर्त रहा है आउसु-हे आयुष्मन् ! त्ति-इस कारण से किं नाम-क्या काहामि-करूँगा भन्ते-पूज्य सुएण-श्रुत के पठन से।'' मूलार्थ-हे आयुष्मन् ! वसति-निवासस्थान. दृढ़ है, वस्त्र मेरे पास हैं, खाने और पीने के लिए अन्न और जल मिल जाता है तथा वर्तमान में जो हो रहा है उसे मैं जानता हूँ, अतः हे भगवन् ! श्रुत के पठन से मैं क्या करूँ ? टीका-इस गाथा में पापश्रमण के लक्षण और श्रुत के विषय में उसके जो विचार हैं, उनका दिग्दर्शन किया गया है। गुरुओं ने,जब शिष्य को श्रुत के पठन का उपदेश किया, तब उत्तर में शिष्य ने कहा कि भगवन् ! शय्या-निवास स्थान दृढ़ है अर्थात् शीत, आतप और वर्षा आदि के उपद्रवों से रहित है तथा शीतादि की निवृत्ति के लिए वस्त्र भी मेरे पास विद्यमान हैं एवं खाने के लिए अन्न-भोजन और पीने के लिए स्वच्छ पानी मिल जाता है, तथा वर्तमान काल में जो कुछ हो रहा है उसे मैं भली भाँति जानता हूँ अतः श्रुत के पढ़ने से मुझे क्या लाभ ? कारण कि आपने श्रुत का अध्ययन किया है। आपको भी केवल वर्तमान के पदार्थों का ही ज्ञान है और मुझको भी, जिसने श्रुत को नहीं पढ़ा, वर्तमान के पदार्थों का बोध है। इसलिए आपके और मेरे ज्ञान में कोई विशेषता नहीं तो फिर श्रुताध्ययन के निमित्त व्यर्थ ही हृदय, गल और तालु को सुखाने से क्या लाभ ? क्योंकि श्रुत के द्वारा आप अतीन्द्रिय पदार्थों को तो जानते ही नहीं, जिससे कि उसकी आवश्यकता प्रतीत हो। अतः श्रुत के अध्ययन से कोई विशेष लाभ प्रतीत नहीं होता। अब फिर इसी विषय में कहते हैं
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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