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________________ ६७६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ षोडशाध्ययनम् वा - अथवा कंखा - कांक्षा वा - अथवा विइगिच्छा - सन्देह वा - अथवा समुप्पजिञ्जाउत्पन्न होवे भेदं - संयम का भेद वा समुच्चयार्थ में लभेजा - प्राप्त करे उम्मायं -. उन्माद को पाउणिज्जा-प्राप्त करे वा अथवा दीहकालियं-दीर्घकालिक रोगायकरोगातंक हवेज्जा - होवे वा - अथवा केवलिपन्नत्ताओ - केवलिप्रणीत धम्मा-धर्म से सेजा - भ्रष्ट होवे । तम्हा - इसलिए खलु - निश्चय से नो- नहीं निग्गन्थे - निर्ग्रन्थ साधु इत्थी - स्त्रियों के कुडन्तरंसि - कुड्य - पत्थर की दीवार आदि में वा - अथवा दून्तरंसि - वस्त्र के अन्तर में भित्तन्तरंसि - दीवार के अन्तर में इस - समय का कूजित शब्द रुइयसद्द - प्रेमरोष का शब्द गीयसद्द - गीत शब्द हसियस - हसित शब्द — हँसने का शब्द थशियस - रतिसमय में किया हुआ स्तनित शब्द कन्दियस६आक्रन्दन शब्द विलवियस - विलाप शब्द सुणेमाणे - सुनने वाला विहरेजा - विचरे । मूलार्थ - निर्ग्रन्थ साधु, कुड्यान्तर में - पाषाणभित्ति के अंतर में, वस्त्र के अन्तर में और भित्ति के अन्तर में, स्त्रियों के कूजितशब्द, रुदितशब्द, गीतशब्द, हास्यशब्द और स्तनितशब्द तथा क्रन्दित और विलाप शब्द को सुनने वाला न होवे | यह किस लिए ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि निग्रंथ साधु कुड्य के व्यवधान से, वस्त्र के अन्तर से, वा दीवार के अन्तर से यदि स्त्रियों के कूजने, रोने, गाने, हँसने, कहकहा मारने, आक्रन्दन करने वा प्रलाप करने के शब्द को सुने तो उस ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य में शंका, आकांचा और विचिकित्सा के उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, संयम का विनाश होता "है, उन्माद की उत्पत्ति तथा दीर्घकालिक भयंकर रोगों का आक्रमण होता है एवं केवलिप्रणीत धर्म से वह पतित हो जाता है । इसलिए ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ कुड्यान्तर में - पाषाणभित्ति के अन्तर में, वस्त्र के अन्तर में और भीत के अन्तर में स्त्रियों के कूजितशब्द, रुदितशब्द, गीत, हास्य और स्तनितशब्द तथा क्रन्दित और विलापशब्दों को सुनता हुआ न विचरे । टीका - इस पंचम समाधि-स्थान में स्त्रियों के विविध प्रकार के शब्दों को सुनने का साधु के लिए निषेध किया है। निर्ग्रन्थ साधु कुड्यान्तर में — अर्थात् पत्थर के बने हुए घर में ठहरा हुआ, तथा वस्त्र के अन्तर में — यवनिकान्तर में या पक्की ईंटों से बने हुए घर में ठहरा हुआ स्त्रियों के कूजित, रुदित, गीत, हास्य, स्तनित,
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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