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________________ ६२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. य बे, श्रने परोणानी थारना घोंच वागे , तेनी सोचनांथी शरीरने खंचवा दे नही, ने दोमतो फिरे, पोताना धंधामां धावतोज रहे, जे ने खांधेजोतर लाग्यु रहे बे,वारंवा र जेनेभारनो मार पडे जे, तेजे सहन कस्यां करे, अनेजे मननो कायर डे, नूखने पण वेठे बे, अने उर्जननो त्रासपण खमे , श्रने स्थिरता पकमतो नथी, क्षण वार पण सुखे मोडेथी श्वास लई शकतो नथी, एरीते पराधीन थको जेम कोल्हुनो कमेरो, के काम करनारो बलद घूमे, तेम जगत्वासी लोक घूमे ले. अर्थात् हे ! नाई!कोल्हुना बलद सरखो तेमनो पण वजाव . ॥ ७० ॥ हवे जगत्वासी जीवनी व्यवस्था कहे :- अथ जगत्वासी यथाः॥ सवैया इकतीसाः ॥- जगतमें डोले जगत्वासी नर रूप धरी,प्रेतकैसे दीप किधों रेत केसे धुहे है; दीसे पटखन आमंबरसों निके फिरे, फीके बिनमांही सांजीअंबर ज्यों सुहे है; मोह के श्रनल दगे मायाकी मनीसों पगे दानकी अनीसों लगे उसकेसे फुहे है, धरमकी बुफिनाहिं, रिके नरम माहि नाचि नाचि मरजाहि मरीकेसे चहे है. अर्थः- जगत्वासी जीव मनुष्यरूप धरीने मोली रह्या बे; ए केवा , जाणियें प्रे तना दीप बे, ते जेम जलदी मटी जाय , तेम ए पण समऊवा. वली रेतिना धूमा डा जेवा , तथा वस्त्र भूषणना आमंबरथी शोजायमान देखाय , अने दणेकमां फीका थई जाय बे, जेम सांऊ समयेथाकाशमांवादल रंग बदलेले, तेम जाणवा. वली मोहना अग्निथी दाजे , ने मायानी मनी के पोतापणुं तेथी पगे के व्यापी रह्या बे, जाणिये डाननी श्रणीउपर लागेला पाणीना बिंडु सरखा , गिरना बिंदु जेवा . धर्मनी उलखाण जेने नथी श्रने चमनेविषे जे अरुकी रह्या बे,जेम मरी उत्पादनां लं दरमां नाची नाची ने मरी जाय . तेम ए संसारी जीव नाचीने मरण पामे. ॥२॥ हवे जगत्वासीनी मोह व्यवस्था कहेजेः- श्रथ जगत् व्यवस्था कथनं:॥ सवैया इकतीसा:- जासों तुं कहत यह संपदा हमारी सोतो, साधनि अमारी ऐसे जैसे नाक सिनकी; जासों तुं कहत हम पुन्य जोग पाई सोतो, नरककी साई हैवडाई देढ दिनकी; धेरा मांहि पर्यो तू विचारै सुख थाखिन्दिको, माखिनके चूंटत मिगई जैसे जिनकी; एते परि होहि न उदासी जगवासी जीव, जगमें असाता है न साता एक दिनकी. ॥ २ ॥ अर्थः- अरे !प्राणी !जेने तुं कहे के था मारी संपत्ति , तेने तो साधु लोके नाकना मेलनी जेम नाखी दीधी, श्रने जे बमाईने तुं कहे के पुण्यना जोगथी हुँ पाम्यो बुं, ते तो नरकनी सहायी बे; जे राजादिकनी साहेबीवे. ते दोन दिवसनी जे. ए परिवारना घेरामां तुं पड्यो थको अांखनुं सुख समजे , पण Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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