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________________ जैन आगम : एक परिचय] करता है वह पायच्छित्त है और जिससे चित्त निर्मल बनता है वह 'पच्छित्त' है। संघ व्यवस्था का भी इसमें वर्णन है। चार प्रकार की विनय प्रतिपत्तियाँ भी बताई गई हैं। इसमें भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण और पादपोपगमनमरण-इन तीन प्रकार की मारणान्तिक साधनाओं का वर्णन है। आगमव्यवहारी, आज्ञाव्यवहारी, जीतव्यवहारी के आचार-व्यवहार का वर्णन है। प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेदों पर भी प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि जो सूत्र और अर्थ के मर्म को जानता है, वही जीतकल्प का योग्य अधिकारी है। (३) बृहत्कल्पलघु-भाष्य - यह संघदासगणी की बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है। इसमें बृहत्कल्पसूत्र के पदों पर विस्तृत विवेचन किया गया है। इसकी लघुभाष्य संज्ञा होने पर भी इसमें ६४९०गाथाएँ हैं। विषयवस्तु- यह छह उद्देशकों में विभक्त है। इसके प्रारम्भ में विस्तृत पीठिका है, जिसमें ८०५ गाथाएँ हैं। इस पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक में श्रुतज्ञान पर विचार किया गया है और सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम तथा विभिन्न प्रकार के सम्यक्त्वों का स्वरूप बताया गया है। अनुयोग का स्वरूप बताकर निक्षेप आदि बारह द्वारों से उस पर चिन्तन किया गया है । कल्पव्यवहार पर विविध दृष्टियों से चिन्तन करते हुए विषय को स्पष्ट करने के लिए कहीं-कहीं दृष्टान्तों का प्रयोग हुआ है। ___ पहले उद्देशक में 'ताल प्रलम्ब' से सम्बन्धित दोष और प्रायश्चित्त, इसे ग्रहण सम्बन्धी अपवाद, श्रमणों के गमन, अस्वस्थता आदि का विधान, आठ प्रकार के वैद्यों का भी वर्णन है। दुष्काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.002151
Book TitleAgam ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, History, & agam_related_other_literature
File Size1 MB
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