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________________ १० [जैन आगम : एक परिचय इनके अतिरिक्त यह भी मान्यता है कि गणधर भगवान के समक्ष जिज्ञासा प्रगट करते हैं कि तत्त्व क्या है (भगवं! कि . तत्तं?) तब भगवान उन्हें यह त्रिपदी प्रदान करते हैं -उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा (पदार्थ उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और स्थिर भी रहता है)। इस त्रिपदी के विवेचन-स्वरूप जिन शास्त्रों की रचना होती है, वे अंगप्रविष्ट कहलाते हैं और शेष शास्त्र अंगबाह्य। आगमों का वर्गीकरण (१) अंग एवं पूर्व - जिनवाणी किंवा जैन आगमों का सर्वप्रथम वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया-अंग और पूर्व । इस वर्गीकरण का सर्वप्रथम उल्लेख समवायांग में मिलता है। अंग बारह हैं, और पूर्व चौदह । __पूर्व समस्त श्रुत आगम साहित्य की मणि मंजूषा हैं । पूर्वो में प्रत्येक विषय पर गभ्भीरतम चर्चा की गयी है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरि के अभिमतानुसार द्वादशांगी में पहले पूर्वो की रचना हुई, बाद में अंगों की। कुछ आधुनिक पाश्चात्य चिन्तकों का मत है कि पूर्वश्रुत भगवान महावीर से पहले भगवान पार्श्व की परम्परा की श्रुत राशि है। किन्तु जैन आगम साहित्य में पूर्वो को अंगों से पृथक नहीं माना जाता। बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' में समस्त चौदह पूर्वो को समाविष्ट माना गया है। जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान महावीर ने सर्वप्रथम पूर्वगत अर्थ का ही प्रवचन दिया था और उसे गौतमादि गणधरों ने पूर्वश्रुत के रूप में निबद्ध किया था। लेकिन पूर्वश्रुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002151
Book TitleAgam ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, History, & agam_related_other_literature
File Size1 MB
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