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________________ अपने राज्य का विस्तार करते हुए सातवाहन ने सिंहलराज पर आक्रमण करना चाहा। पर उसके सेनापति विजयानन्द ने सलाह दी कि सिंहल से मंत्री रखना ही अच्छा होगा। राजा सातवाहन ने विजयानन्द को ही दूत बनाकर भेजा। विजयानन्द नौका टूट जाने के कारण गोदावरी के तट पर ही रुक गया। उसे पता लगा कि सिंहलराज की पुत्री लीलावती यहां निवास करती है । उसने आकर सातवाहन को सारा वृत्तान्त सुनाया। सातवाहन सेना लेकर उपस्थित हुआ और लीलावती से विवाह करने की इच्छा प्रकट की। परन्तु लीलावती ने यह कहकर इन्कार कर दिया कि जबतक महानुमती का प्रिय नहीं मिलेगा, तबतक में विवाह नहीं करूंगी। राजा पाताल पहुंचा और माधवानिल को छ ड़ा लाया। फिर भीषणानन राक्षस पर आक्रमण किया। चोट खाते ही भीषणानन पुनः राजकुमार बन गया। इस समय यक्षराज नलकूबर, विद्याधर हंस और सिंहलनरेश वहीं। हए। उन्होंने अपनी-अपनी पत्रियों का विवाह त ततप्रिय राजकमार से कर दिया। यक्षों, गन्धर्वो, सिद्धों, विद्याधरों, राक्षसों और मानवों ने अनेक सिद्धियां वर-वधुओं को उपहार में दी। इस कथा में निम्नांकित विशेषताएं विद्यमान है:-- १--दिव्यलोक और मानवलोक दोनों के पात्र होने से कथा दिव्यमानुषी है। २--यह सरस प्रेम कथा है । प्रेम का अंकुर नायिका के हृदय में अंकुरित हुआ है। प्रेम का संयत और सन्तुलित चित्रण करने में कवि ने पूर्ण सफलता पाई है। उसने प्रेमियों और प्रेमिकाओं की दृढ़ता की दीर्घ परीक्षा करके ही उन्हें विवाह बन्धन में बांधा है। ३--प्राकृतिक दृश्यों के कलात्मक वर्णन बहुत सुन्दर और हृदयग्राह य है। . उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, कालिग आदि अलंकारों का बहुत ही सुन्दर सन्निवेश हुआ है। ४--राजसभाओं, स्थानमण्डयों और जन्म-स्थल प्रभृति का सजीव चित्रण हुआ है। ५--घटनाओं का आकलन कथात्मक शैली में हुआ है। कथारस की बहुलता पाई जाती है। ६--समस्याएं और उलझनें उत्पन्न होती है। इनके द्वारा कौतूहल का सृजन सुन्दर हुआ है। मनोरंजन और कुतूहल ये दोनों गुण इस कृति में व्याप्त हैं। ७--प्रबन्ध काव्य की पटुता और मर्मस्थलों की पहचान कवि को सर्वाधिक है। जिज्ञासा और कुतूहल की जागृति के लिए कथा में विभिन्न प्रावर्त-विवों को उत्पन्न किया गया है। ८--मानवीय, अतिमानवीय और दैवी तत्त्वों के मिश्रण से कथा को पर्याप्त सरस बनाया गया है। हरिभद्र उत्तरयुगीन प्राकृत कथा-साहित्य सामान्य प्रवृत्ति यां हरिभद्र के अनन्तर प्राकृत कथा साहित्य अपनी पूर्ण समृद्धि के मार्ग पर प्रारूढ़ हमा और अपनी समस्त पूर्व अजित क्षमताओं, शक्तियों, तत्त्वों, प्रवृत्तियों और गुणों के साथ नानाविध रूप ग्रहण कर अपने को एक समृद्ध और पूर्णसाहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित करने में समर्थ हुआ। काल और समृद्धि दोनों दृष्टियों से इसका विस्तार अनपेक्षणीय है। एक जीवन्त साहित्य विधा की प्राणधारा को जिस प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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