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________________ ५८ इस कथा कृति की प्रशंसा करते हुए स्वयं कवि ने कहा हैदीहच्छि कहा एसा अणुदियह जे पढंति णिसुणंति । ताण पिय-विरह-दुक्खं ण होइ कइया वि तणमंगि ॥१३३३३१ अर्थात--जो इस कथा को प्रतिदिन पढ़ेगा या सुनेगा, उसे कभी भी प्रिय विरह का दुःख नहीं होगा। अतः स्पष्ट है कि प्रेमाख्यानक साहित्य के विकास में इस कृति का महत्वपूर्ण योग है। __ इस अमरकथा कृति के रचयिता कौतूहल कवि हैं। इनके पितामह का नाम । वे वेदों में निष्णात थे। देवताओं की इनके ऊपर कृपा थी। इनके पुत्र का नाम भूषण भट्ट था। कवि कौतूहल के पिता यही थे। कवि ने अपने पितामह और पिता का स्मरण बड़े गर्व के साथ किया है। कवि के समय के संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । पुष्पदन्त ने कालिदास के साथ कोहल का नाम लिया है । संभवतः यही कोहल कौतूहल रहा होगा। जिस प्रकार शालिवाहन को सालाहन, साल या हाल कहते हैं, उसी प्रकार कौतूहल को कोहल कहा गया है। वि० सं० १२०८ की लिखी हुई लीलावईकहा की ताडपत्रीय प्रति उपलब्ध है तथा ६०० इस्वी के आनन्दवर्धन के समय में इसका उल्लेख है । अतः इनके समय की उत्तरावधि १०वीं शती है । लीलावती कथा की गठन, रस, उलझनें कादम्बरी के समान है, अतः इसकी पूर्वावधि कादम्बरी के उपरान्त ...७वीं शती के पश्चात् है। समराइच्चकहा के कुछ उद्धरण तथा वर्णन इसमें प्रायः मिल जाते हैं। अतः कवि का समय ८०० ई० के लगभग होना चाहिये। दृश्य वर्णन और प्रकृति चित्रणों से ऐसा लगता है कि कवि का जन्म स्थान पैठन रहा होगा। यह स्थान गोदावरी नदी के तट पर था। इस कथा में प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन और सिंहलद्वीप की राजकारी लीलावती की प्रेमकथा वर्णित है । कुवलयावली राजर्षि विपुलाशय की अप्सरा रम्भा से उत्पन्न कन्या थी। उसने गन्धर्व कुमार चित्रांगद से गन्धर्व विवाह कर लिया । उसके पिता ने कुपित होकर चित्रांगद को शाप दिया और वह भीषणानन राक्षस बन गया। कुवलयावली आत्महत्या करने को उद्यत हुई, पर रम्भा ने आकर उसको धैर्य बंधाया और उसे नलकूवर के संरक्षण में छोड़ दिया। यक्षराज नलकूवर का विवाह वसन्तश्री नाम की विद्याधरी से हुआ था, जिससे महानुमती का जन्म हुआ। महानुमती और कुवलयावली दोनों सखियों का बड़ा स्नेह था। एक बार वे विमान पर चढ़कर मलय पर्वत पर गई, जहां सिद्धकुमारियों के साथ झूला झूलते हुए महानुमती और सिद्धकुमार माधवानिल की प्रांखें चार हुई । घर लौटकर महानुमती बड़ी व्याकुल रहने लगी। उसने कुवलयावली को पुनः मलयप्रदेश भेजा। परन्तु वहां जाकर पता चला कि माधवानिल को कोई शत्रु भगाकर पाताल-लोक में ले गये हैं। वापस आकर उसने दुःखी महानुमती को सान्त्वना दी। दोनों गोदावरी के तट पर भवानी की पूजा करने लगीं। यहां तक अवान्तर कथाओं का वितान है। अब प्रधान कथा का प्रवेश होता है। सिंहलराज की पुत्री लीलावती का जन्म वसन्तश्री की बहन विद्याधरी शारदश्री से हमा था। एक दिन लीलावती प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन के चित्र को देखकर मोहित हो गयी। बाद में उसने उसे स्वप्न में भी देखा। माता-पिता की आज्ञा लेकर वह अपने प्रिय की खोज में निकल पड़ी। उसका दल मार्ग में गोदावरी-तट पर आकर ठहरा, जहां उसे अपनी मौसी की लड़की महानमति मिल गई। तीनों विरहिणियां एक साथ रहने लगीं। १-लीला० क० गा० १८--२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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