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________________ ३८८ किया था । उद्यान में पत्र- छेदन, कन्दुकक्रीड़ा, वीणावादन श्रादि के करने से जब युवक-युवतियां क्लान्त हो जातीं तो तालवृन्त में कर्पूर वीटिका बांधकर हवा करती थीं । चन्दन लेप एवं मृणालवलय आदि भी धारण किये जाते थे । अष्टमी चन्द्र महोत्सव (स०१० २३७ ) - - यह उत्सव भी प्रायः स्त्रियों के द्वारा सम्पन्न होता था । स्त्रियां सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज्जित हो करके उद्यान में नाच-गान पूर्वक इस उत्सव को सम्पन्न करती थीं । पुरुष भी इसमें शामिल होते थे और वे भी उत्सव का श्रानन्द उठाते थे, किन्तु प्रधानता नारियों की ही रहती थी । यह इनके लिए मदन पूजन का दिन था । यह उत्सव चैत्र शुक्ला अष्टमी को सम्पन्न किया जाता था । कौमुदी महोत्सव (स०पू० ६४७ ) -- यह उत्सव संभवतः शरद् पूर्णिमा को होता था । युवक-युवतियां उद्यान और लतागृहों में जाकर नृत्य-गान का श्रानन्द लेती थीं । इन उत्सवों के अतिरिक्त हरिभद्र ने कई प्रकार की गोष्ठियों का भी उल्लेख किया है । मित्रगोष्ठी, धूर्त गोष्ठी और कुटुम्ब गोष्ठी के नाम आये हैं । इन गोष्ठियों का उद्देश्य मनोरंजन, समस्याओं का समाधान एवं व्यंग्यरूप में किसी प्रधान तथ्य पर प्रकाश डालना हँ । मित्रगोष्ठी में प्रशोक, कामांकुर और ललितांगकुमार समरादित्य का मनोरंजन करने के लिए मनोहर गीत गाते, गाथा पढ़ते, वीणावादन का प्रयोग पूछते, नाटक देखते, कामशास्त्र का विचार करते, चित्र देखते, सारस पक्षियों के जोड़े की चर्चा करते, चक्रवाकों की निन्दा करते, झूले पर झूलते और पुष्प- शय्या सजाते थे । 1 धूर्त गोष्ठी में धूर्ताख्यान के पांचों धूर्त अपनी-अपनी गप्प हांकत तथा पुराणों पर व्यंग्य करते दिखलायी पड़ते हैं । आर्थिक स्थिति हरिभद्र की दृष्टि में अर्थ की बड़ी महत्ता है । इन्होंने "अत्थर हिओ खु पुरिसो अपुरिसो चेव" अर्थात् धनरहित व्यक्ति को पुरुष ही नहीं माना है । एक कथा में कहा है कि अर्थ ही देवता है, यही सम्मान बढ़ाता है, यही गौरव पैदा करता है, यही मनुष्य का मूल्य बढ़ाता है, यही सुन्दरता का कारण है, यही कुल, रूप, विद्या और बुद्धि का प्रकाशन करता है ५ I धन के अभाव में मनुष्य की कोई भी स्थिति संभव नहीं है । सारे सुखों का साधन धन ही हैं । अतः “तिवग्गसाहणमूलं श्रत्थजायं " त्रिवर्ग का मूल साधन धन ही है । धन के अभाव में धर्म और काम पुरुषार्थ का भी सेवन संभव नहीं है । आजीविका के साधन हरिभद्र ने आजीविका के प्रधान साधनों में असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और भृत्य कर्म को गिनाया है । हरिभद्र ने पूर्वपरम्परा प्रचलित पन्द्रह कार्यों को खर कर्म कहा है और धर्मात्मा व्यक्ति को इनके करने का निषेध किया है । यह सत्य है १- सम० पृ० २ -- वही, पृ० ३ - - वही, पृ० ४ -- वही, पृ० ५ - वही, पृ० २४६ Jain Education International ८३ । ३७५ । ८६५ ॥ ५३९ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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