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________________ किये गये कमलों वाली भवन की बावड़ियां के कमल वन खंड, कोकिल के मघर कूजन से मुखरित आम्रकुंज, पुष्पों के मधुपान से मुदित भ्रमरों द्वारा परिचारित माधवी लता मण्डप, नागवल्ली के समुह से समालिगित सुपाड़ी के फल समूह, अपनी सुगन्धि से दिगमण्डल को सुवासित करने वाले कुंकुम-केशर के गुच्छ, मन्द वायु से प्रान्दोलित नेत्र को प्रिय लगने वाले कालीगह एवं सुगन्धित और मनोरम माधवी सभा मण्डप भवनोद्यान की शोभा बढ़ा रहे थे । इस भवनोद्यान के प्रधान दो भाग रहते थे-(१) कदली गृह और (२) माधवी लतामण्डप । भवनदीर्घिका भवनोद्यान के भीतर से लेकर अन्तःपुर तक एक छोटी-सी नहर रहती थी। लम्बी होने के कारण इसे भवनदीपिका या गृहदीपिका कहा गया है । दीपिका के मध्य में गन्धोदक से पूर्ण क्रीड़ा वापियां बनायी जाती थीं। इनमें कमल सदा विकसित रहते थे। राजहंस इनमें मनोरम क्रीड़ा करते थे। भवन दोधिका में राजा और रानियां स्नान करती थीं। भवनदीपिका का वर्णन हर्षचरित में भी इसी प्रकार पाया है । डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे उस काल के राजप्रासादों की वस्तुकला की विशेषता ही बतलाया है । महानसगह और बाह्याली राजप्रासाद के एक खंड में रसोईघर बनाया जाता था। भोजन करने के स्थान को आहार मण्डप कहा गया है। राजप्रासाद के बाहर बागाली-घोड़े पर सवार होकर भ्रमण करने का स्थान (स० पृ० १६) राजपुत्रों के लिये रहता था। अन्तःपुर की व्यवस्था के लिये राजा निम्न कर्मचारियों की नियुक्ति करता था:-- (१) वैत्र यष्टि स्थापित प्रतिहारी-पहरा देने वाले प्रतिहारी। (२) लघुकंचुको'- महड कंचुइया--सूचना देने वाले कंचुकी। (३) कन्यान्तःपुर महत्क'--वृद्ध प्रतिहारी।। (४) सूपकार'--भोजन बनाने का कार्य करने वाले । राजा जब नगर में पहुंचता तो पुरवासी नगर को खूब सजाते थे। महाराज गुणसेन बसन्तपुर से जब क्षितिप्रतिष्ठ राजधानी में आया तो नगरवासियों ने ध्वजा और तोरणों से नगर को सजाया था। हरिभद्र ने इस सजावट का वर्णन करते हुए लिखा है-- "ऊसियविचित्तकेउनिवह, विविहकयहट्टसोहं " 'इत्यादि अर्थात् वह नगर उन्नत नाना वर्ण की ध्वजाओं से युक्त था। उसके बाजार नाना प्रकार की सजावट से परिपूर्ण थे। राजमार्गों पर सुगन्धित पुष्प विकीर्ण किये गये थे, महलों के ऊपर सफेदी करायी गयी थी. और उन्हें मालाओं से शोभित किया गया था। इतना ही नहीं नगर को महावैभव से परिपूर्ण किया गया था। राजा धर्म प्रेमी होता था। वह जनता के योगक्षेम में प्रमाद नहीं करता था। उत्साहपूर्वक समस्त कार्यों का सम्पादन करता था। राजा के लिए जिन कला और १--स०, पृ० ८७, ८८, ३२१ । २--वही, पृ० ४७३, ६२ । ३--वही, पृ० २२ । ४. वही, पृ० ३८२ । ५- वही, पृ० २२ । ६--वही, पृ० ४३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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