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________________ सनत्कुमार और विद्याधरों के मध्य में हुए युद्ध का वर्णन भी बहुत ही प्रोजस्वी और सजीव है। वाणवर्षा का बहुत ही चुभता चित्रण किया है-- प्रायण्णायड्ढियजीवकोडिचक्कलियचावमुहि । अप्फुणं गयणयलं सरेहि घणजलहरेहिं व। अन्नोन्नावडणखणक्खणन्तकरवालनिवहसंजणियो । तडिनियरो व्व समन्ता विप्फुरियो सिहिफुलिंगोहो ॥--स० पृ० ४६७, पं० भव युद्ध भूमि में वीरों की दर्पोक्तियां--"कि सुप्रो तए केसरिसियालाण विवानो त्ति ।-- समागया नियाणवेला, ता भणिस्सन्ति एए समरसहासया सुरसिद्धविज्जाहरा, को एत्थ सियालो, को वा के सरि ति" पृ० ४६८ भी सुनायी पड़ती है, जो युद्धभूमि में उत्साह का संवर्द्धन करती है। ___ वीर रस के प्रसंग में रौद्र रस के उदाहरण भी समाविष्ट है। शत्रु के आक्रमण की चर्चा सुनते ही क्रोध की भावना उपस्थित हो जाती है, पर यह क्रोध उत्साह मिश्रित होने के कारण वीररस का जनक माना जायगा। रौद्र में सात्विक क्रोध नहीं देखा जाता है। रौद्र रस का पालंबन अरिस्त्र कहा गया है ।। समराइच्चकहा में बीभत्सरस का वर्णन कात्यायनी देवी के मन्दिर में बलि के अवसर पर किया गया है। यहां नरमण्ड, कबंध, रक्त, मांस आदि के चित्रांकन किये है। इस दृश्य के अवलोकन करते ही जुगुप्सा भाव उत्पन्न होता है। यहां शव, चर्बी, मांस, रुधिर आदि घृणोत्पादक वस्तुएं पालम्बन है। उद्दीपन के अन्तर्गत बलि के निमित्त पाए हुए व्यक्तियों का छटपटाना, कुत्सित रंग रूप आदि आते हैं। आवेग, मोह, जड़ता, व्याधि, वैवर्ण्य, उन्माद, निर्वेद, ग्लानि, और दैन्य आदि संचारी भावों के रूप में उत्पन्न होते हैं। प्रसंग दर्शनीय है-- मयणाहवयणभीसणविरइयपायारसिहरसंघायं । उत्तुंगवेणुलम्बियदीहरपोण्डरियकत्तिझयं ॥ वियडगयदन्तनिम्मियभित्तिसमुक्किन्नसलसंघायं । तक्खणमेत्तुक्कत्तियचम्मसमोच्छइयगब्भहरं ॥ पुरिसवसापरिपूरियकवालपज्जलियमंगलपईवं । डज्झन्तविल्लगुग्गुलुपवियम्भियधूमसंघायं ॥--पृ० ५३१, षष्ठ भव उपर्युक्त पद्यों में पालम्बन, उद्दीपन और संचारीभावों से पुष्ट जुगुत्सा बीभत्सरस की निष्पत्ति कर रहा है । सत्य यह है कि इस स्थल पर उठने वाला घृणाभाव स्थायी है। इससे बीभत्स रस व्यंग्य है । समराइच्चकहा में हरिभद्र ने मन्त्र-तन्त्र की विलक्षण करामातें और पट, गलिका आदि के चमत्कार अनेक स्थलों पर अंकित किये हैं। विद्याधरों की विभिन्न प्रकार की सिद्धियां, विद्याओं द्वारा नाना प्रकार के चमत्कार उल्लिखित किये हैं। इनमें अधिकांश स्थलों पर केवल पालम्बन से ही काम चल गया है और कहीं-कहीं अद्भुत रस का पूरा परिपाक भी हुआ है। बताया गया है-- __कुमार, सकोउयं ति करिऊण गण्हाहि एयं नयणमोहयाभिहाणपडरयण ति, मए भणियं "कीइसं कोउगं" ति । तेन भणियं, इमेण पच्छाइय-सरीरो न दीसइ नयहि पुरिसो त्ति ।--सं० पृ० ४००, पंचम भव । इसी प्रसंग में आगे आनन्द पुरवासी सिद्धसेन नाम के मंत्र का नाम भी पाया है । मनोरथदत्त ने अपने मित्र सनत्कुमार को इसके चमत्कारों की चर्चा की थी। मनोरथदत्त २२ --२२ एड० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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