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________________ इससे स्पष्ट है कि कवि वियोग श्रृंगार के वर्णन करते समय वियोग की सभी दशाओं का निरूपण करता है । संयोग शृंगार का विवेचन भी बड़ी पटुता के साथ किया गया है। कवि एक नायिका के सुरतसुख का निरूपण करता हुआ कहता है-- सुरयमणस्स रइहरे नियम्बभमिरं बहू धुयकरग्गा ॥ तक्खणवुत्तविवाहा वरयस्स करं निवारे इ ॥--पृ० ७५२, अष्टम भ० नवोढ़ा बधू रतिगृह में सुरत करने की इच्छावाले नायक द्वारा नितम्ब पर फेरते हुए हाथ को अपना हस्तान हिलाकर मना कर रही है । भावियरइसाररसा समाणिउं मुक्कबहलसिक्कारा । न तरइ विवरीयरयं णियंबभारालसा सामा ॥--पृ० ७५२ अ० भव संभोग कर रति के सारभूत रस का अनुभव की हुई तथा अधिक सीत्कार करती हुई नितम्बों के भार से पालसयुक्त श्यामा नायिका विपरीत रति करने के लिये समर्थ नहीं होती। विउलंमि मउलियच्छी घणवीसम्भस्स सामली सुइरं । विवरीयसुरयसुहिया, वीसमइ उरंमि रमणस्स ॥--१० ७५३, अष्ट० भव विपरीत सुरत से सुख पायी हुई श्यामा नायिका नेत्रों को बन्द कर, पूर्ण विश्वसनीय नायक के विशाल वक्षस्थल पर बहुत समय तक विश्राम करती रही । उपर्युक्त तीनों ही पद्यों में संयोग श्रृंगार का सुन्दर निरूपण है । पालम्बन, उद्दीपन, अनुभाव और संचारी भावों का संयोग बड़े सुन्दर रूप में हुआ है । वीर रस का निरूपण युद्ध के प्रसंग में तीन बार आया है। त्यागवीर, धर्मवीर और दयावीर के कथन तो प्रायः समस्त समराइच्चकहा में वर्तमान है । सुबुद्ध पात्र झटका लगते ही सर्वस्व त्याग कर श्रमण बन जाते हैं। वीररस का स्थायी भाव उत्साह सर्वत्र व्याप्त रहता है। इसी भाव के कारण पात्र दान, धर्म, तप, और त्याग में आसक्त रहते हैं। मान भंग द्वारा सीमा अतिक्रमण के समाचार सुनकर कुमार गुणसेन प्रागबबूला हो जाता है। समरभूमि में चलने के लिये सेना तैयार होने लगती है । हाथी सेना, घड़सवार सेना, रथ सेना और पदातिसेना का सजीव और मूत्तिमान रूप उपस्थित कर वीररस की प्रतिमा खड़ी कर दी। इस प्रसंग में मानभंग पालम्बन है, उसके आक्रमण का समाचार उद्दीपन है । सामन्तों के गर्वसूचक वाक्य अनुभाव तथा शत्रु से मोर्चा लेने के लिये धर्य और आत्मविश्वास संचारी है । फल यह हुआ कि युद्ध के नगाड़ों पर चोट पड़ी, अन्य बाजे बज उठे । सेना अस्त्र-शस्त्र से सज्जित हो प्रस्थान की तैयारी करने लगी। कवि ने उत्साह की व्यंजना बड़े सुन्दर रूप में की है ।। तो राइणा एवं सुदूसहं वयणमायण्णिऊण. .. .। जहा देह तुरियं पयाणयपडहं, सज्जेह दुज्जयं करिबलं--निसियकरवाल कोन्तसोयामणिसणा हं-- नरिन्दसाहणं ति ।--स० पृ० २७-२८, प्र० भव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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