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________________ ३२५ तित्थयरवयणपंकय --में तीर्थ कर के मुख की मृदुता और सुषमा का भाव व्यक्त करने के लिए पंकज का बिम्ब प्रस्तुत किया गया है। पंकज में कोमलता, सुषमा, सुगन्धि आदि गुण रहते हैं, तीर्थ कर के मुख में भी ये गुण विद्यमान हैं। सन्ध्या समय कमल के संकुचित हो जाने से भ्रमर कमल में ही बंध जाते हैं पर प्रातःकाल सूर्योदय होते ही निकल पड़ते हैं। तीर्थ कर के मुख से दिव्यध्वनि निकलती है। हरिभद्र ने पंकज का सादृश्य लेकर तीर्थ कर के मुख में पंकज का बिम्ब विधान किया है । पाउस लीलावलम्बिसोहियं विमाणच्छन्दयं --विमानच्छन्दक प्रासाद को वर्षाकाल कहकर स्पष्ट किया है। वर्षाकाल के कुछ दृश्य चाक्षुष होते हैं और कुछ स्पाशिक । शीतल मन्द समीर का स्पर्श, जो कि आह्लाद का प्रधान कारण है, स्पाशिक है। मेघ घटाओं का प्राच्छन्न होना, विद्युत् का चमकना, कभी तिमिर और कभी प्रकाश का व्याप्त होना चाक्षुष है। प्रावट की वास्तविक सुखानुभूति स्पर्शनजन्य है । अतः इस बिम्ब को स्पाशिक बिम्ब में परिगणित किया है। मिच्छत्तपंकमग्गपडिबद्ध --मिथ्यात्व को सघनता और उससे निकलने की कठिनाई का बोध कराने के लिए उक्त बिम्ब का प्रयोग किया है। मिथ्यात्वपंक कहते या सुनते ही हमारे मन में एक बिम्ब या प्रतिमा निर्मित हो जाती है और उस प्रतिमा के सहारे हम मिथ्यात्व मार्ग से निकलने के लिए किये जाने वाले प्रयास को अवगत कर लेते हैं। कम्मवणदावाणलो --कर्म बन्धन के कारण होने वाले क्लेश, दुःख और सन्ताप का मूत्तिमान रूप दिखलाने के लिए वन बिम्बयोजना की है। दावानल वन को भस्म कर मैदान साफ कर देता है। धर्मोपदेश भी कर्म-बंधन को नष्ट कर आत्मा को शुद्ध बनाता है। "कम्मवणदावागलो" में बहुत ही स्वच्छ बिम्ब है, जो कर्म की सघनता और भयंकरता के साथ धर्मोपदेश के प्रभाव की व्यंजना करता है। इस प्रकार “दुक्खसे लवज्जासणी में भी सुन्दर बिम्ब योजना है। तरुणरविमण्डलनिह --मध्यकालीन सूर्य के प्रभाव, प्रताप और तेज की समता लेकर धर्मचक्र के भाव को अभिव्यक्त किया गया है। इस बिम्ब में सादृश्यजन्य स्वच्छता वर्तमान है। __सद्धाजल --में श्रद्धा के अमत्तिक भाव को जल बिम्ब द्वारा प्रकट किया है। जल को स्वच्छता, शीतलता, पिपासा-शमन प्रभृति गुणों द्वारा श्रद्धा के स्वरूप को अभिव्यक्त किया है। ___ कोवागल --क्रोध के सन्ताप, जलन, उष्णता और भयंकरता का स्वरूप उपस्थित करने के लिए "अनल" का बिम्ब खड़ा किया गया है। “कोवाणल" सुनते ही हमारे मन में उष्णता का एक विचित्र भाव उत्पन्न हो जाता है और अनल से धू-धू कर निकलती हुई लपटें हमारी स्पर्शन इन्द्रिय के समक्ष क्रोध का मूत्तिमान रूप उपस्थित कर देती है, जिसमें अपार जलन और भस्मसात् करने की क्षमता वर्तमान है। १ । स०, पृ०२। २। वही, पृ० १५। ३ । वही, पृ० ६७ । ४ । वही, पृ० १०५। ५। वही, पृ० १६६ । ६ । वही, पृ० १६१ । ७ । वही, पृ० २६३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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