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________________ ३२४ है, वह उसे अपने पाठकों तक पहुंचाने के लिए साधारणीकरण की प्रक्रिया का अवलम्बन ग्रहण करता है। अतः अपनी अनुभूति को पाठकों की अनुभूति बनाने के लिए कलाकार को बिम्ब विधान की योजना करनी पड़ती हैं। अभिप्राय यह है कि जहां शब्द अर्थग्रहण के अलावा और कुछ कहने में समर्थ हो, वहां शब्द बिम्ब बन जाता है। शब्दान्तर से हम कह सकते हैं कि विशेष प्रकार के अर्थवान् शब्द ही बिम्ब हैं। ___ मनोवैज्ञानिकों ने विषयी--सब्जेक्ट की दृष्टि से बिम्बों का अध्ययन किया है। ऐसी वस्तु जो विषयों में बार-बार एक ही प्रकार के मनोवेगों को जाग्रत करे, उसे उस भाव का बिम्ब कहा जायगा। यह प्रक्रिया उल्टी भी हो सकती है। विषयी के मन में जब-जब एक विशेष प्रकार का भाव उठेगा, तब-तब उसके सामने उससे तुल्यर्थता रखनेवाली वैसी ही वस्तु उपस्थित हो जायगी। जैसे डरपोक व्यक्ति जब भी अन्धकार में जायगा, उसके सामने ठूठ भी भूत बन जायगा, इसी तरह किसी वस्तु विशेष को अपनी भावनाओं के प्रक्षेपण से उस रूप में ग्रहण कर लेना, जो उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है, बिम्ब विधान है। दर्शन के अनुसार चैतन्याकाराकारित चित्तवृत्ति के द्वारा बिम्बों का निर्माण होता है और ये बिम्ब घटादिविषयक अज्ञान को दूर कर उनके संबंध में गहन संस्कार उत्पन्न करते हैं। कालान्तर में ये ही संस्कार वस्तुओं के ज्ञान का प्रकाशन करते हैं। स्वप्रतिबिम्बित चिदाभास के द्वारा अतीत और अनागत पदार्थ भी प्रतीत होने लगते हैं। अतः बिम्बों का महत्त्व सभी ज्ञान की शाखाओं में समान रूप से अभिप्रेत है। ज्ञानप्राप्ति के साधनों के अनुसार बिम्बों के प्रधानतः दो भेद किये जा सकते हैं ऐन्द्रिक बिम्ब और अतीन्द्रिय बिम्ब । इन्द्रियां पांच है, अतः इन्द्रिय और पदार्थों का सन्निकर्ष भी पांच प्रकार का संभव है। अतएव ऐन्द्रिक बिम्बों के पांच भेद है-- (१) स्पाशिक बिम्ब या शीतोष्ण बोधक बिम्ब । (२) रासनिक बिम्ब । (३) घ्राणिक बिम्ब । (४) चाक्षुस बिम्ब। (५) श्रावण बिम्ब। हरिभद्र ने समराइच्चकहा में सादृश्यमूलक बिम्बों का प्रयोग अधिक किया है। , उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकारों में यथातथ्य और स्वच्छ बिम्बों का प्रचर परिमाण में प्रयोग हुआ है। यथातथ्य बिम्बों में जितने परिमाण में बिम्ब स्वच्छ है, उतने ही परिमाण में भाव भी स्वच्छ मिलेगा। अस्पष्ट और दुर्जेय बिम्बों का प्रयोग प्रायः हरिभद्र ने नहीं किया है। यहां कुछ बिम्बों का विवेचन उपस्थित किया जाता है । स्प.शिक बिम्ब-- इस कोटि के बिम्बों के प्रयोग अधिक आये हैं। इस प्रकार के बिम्बों का प्रधान कार्य स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी पदार्थ द्वारा किसी विशेष भाव की उत्पत्ति करना है। भाव का मूर्तिमान रूप सामने प्रस्तुत कर उस भाव का एक स्वच्छ आधार खड़ा कर देना है। यथा-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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