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________________ ३२२ १८-उदात्त । इस अलंकार के अन्तर्गत लोकोत्तर वैभव का वर्णन सन्निविष्ट रहता है। इस अलंकार की योजना समराइच्चकहा में नगरी निरूपण, राजवैभव, श्रेष्ठिवैभव एवं स्वर्गों के वैभव के प्रतिपादन में प्रायः सर्वत्र हुई है। यहां एकाध उदाहरण प्रस्तुत किया जाता (१) अणेयविज्जाहरनरिन्दमउलिमणिप्पभाविसरविच्छ रियपायपीढो चक्कसेणो नाम विज्जाहरवई।-पृ० ४४१ (२) महामहल्लुत्तुंगभवणसिहरुप्पंकनिरुद्धरविरहमग्गा देवउलविहारारामसंगया निच्चुस्सवाणन्दपमुइयमहाजणा निवासो तिहुयणसिरीए निदरिसणं देवनयरीए विस्सकम्म-विणिम्मिया ओझा नाम नयरी ।--स० पृ० ७३१ ।। (३) विमलमहासलिलपडिहत्थं समद्धासियं नलिणिसंडेणं विरायमाणं विउद्धकमलारसिरीए हंसकारण्डवचक्कवानोवसोहियं रुणरुणन्तणं भमरजालेणं समन्नियं कप्पपायवराईए समासन्नदिव्योववणसोहियं पणच्चमाणं पिव कल्लोललीलाकरहिं महन्तं सरवरं वयणेणमयरं ---स० पृ० ७३२। प्रथम उदाहरण में विद्याधर, द्वितीय में अयोध्यानगरी और तृतीय में एक सरोवर का उदात्त रूप अंकित है । १९---व्यतिरेक । उपमेय की उपमान से अधिकता या न्यूनता सूचित करने के लिए व्यतिरेक अलंकार का व्यवहार किया जाता है । हरिभद्र ने व्यतिरेक अलंकार का सुन्दर प्रयोग किया है । निम्न उदाहरण दर्शनीय है :-- संसारसारभूयं नयणमणाणन्दयारयं परमं । तिहुयणविम्हयजणणं विहिणो वि अउव्वनिम्माणं । स० पृ०७४२॥ संसार का सारभूत, नेत्र तथा मन को आनन्दित करने वाला, तीनों लोकों में आश्चर्यजनक ब्रह्मा की अपूर्व रचना है । इस पद्य में उपमान की अपेक्षा उपमेय नायिका का उत्कर्ष दिखलाया गया है। २०--परिकर । कथन को सशक्त और चमत्कृत बनाने के लिए साभिप्राय विशेषण का प्रयोग कर इस अलंकार का सृजन किया जाता है। हरिभद्र ने गद्य और पद्य दोनों में ही साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया है-- देउ सुहं वो सुर-सिद्ध-मणुप्रवन्द्रे हि सायरं नमिया । तित्थयखयणपंकयविणिग्गया मणहरा वाणी ॥स० पृ० २। इस पद्य में प्रयुक्त सभी विशेषण साभिप्राय हैं। २१--अप्रस्तुत प्रशंसामूलक अर्थान्तरन्यास। समराइच्चकहा में अप्रस्तुत से प्रस्तुत की अभिव्यंजना द्वारा सामान्य का विशेष से समर्थन किया गया है । इस अलंकार का स्पष्टीकरण निम्न उदाहरण द्वारा किया जाता अमयं पि हु विसं, रज्जू वि य किण्हसप्पो, गोप्पयं पि सायरो, अणूवि य गिरी, मूसयविवरं पि रसायलं, सुयणो वि दुज्जणो, सुप्रोवि वइरी, जाया वि भुयंगी, पयासो वि अन्धयारं, खंती वि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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