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________________ ३२१ (४) छड्डे जियंतं पि हु मयं पि श्रणुमरइ काइ भत्तारं । विसहरगयं व चरियं वंकविवक महिलियाणं ।। स० पृ० । ४ ३०५ । यहां महिलाओं के वक्र चरित्र का समर्थन सर्प की वक्र गति से किया गया है । १३ -- यथासंख्य | पूर्वोद्दिष्ट पदार्थों का क्रमशः पुनः कथन किये जाने को यथासंख्य अलंकार कहते हैं । इसका अन्य नाम क्रम प्रलंकार भी बताया गया है । यथा- aण हरणं चरणेहि य जीए निज्जिया प्रासि । सव्वविलयाणमहियं सोहा ससिकलसकमलाणं ।। स० ४। पृ० ३१७ । मुख, स्तनभार और चरणों की शोभा से समस्त स्त्रियों ने चन्द्रमा, कलश और कमल की शोभा को जीत लिया है । १४ -- आक्षेप । तिण संथारनिवन्नो वि मुणिवरो भट्ठराग-मय-मोहो । जं पावइ सुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टी वि ॥ स० पृ० ३ । २१६ इस पद्य में राग-द्वेष से रहित तृण के संथार पर विश्राम करने वाले मुनि के सुख द्वारा चक्रवर्ती के सुख का तिरस्कार किया गया है । १५ -- तुल्ययोगिता । किसी वस्तु या व्यापार के गुण और क्रिया में जहां एक धर्मत्व की प्रतिष्ठा की जाती है, वहां पर तुल्ययोगिता अलंकार होता है । के साहरनपणेहिं सविबभमुब्भन्तपेच्छिएहिंच | तिव्वतवाण मुणीण वि जा चित्तहरा दढमासि ।। स० पृ० ४ । ३१८ । केश, अधर और नयनों के द्वारा तथा विलासपूर्वक अपने कटाक्ष के द्वारा तीव्र तपवाले मुनियों के मन को चुराती थी। यहां केश, अधर, नयन और कटाक्ष इन चारों में मुनियों के मन को चुराने रूप एक धर्म की प्रतिष्ठा की गयी है । १६- - स्वभावोक्ति । संवेद्य पदार्थों के स्वरूप का स्वाभाविक निरूपण करने यह अलंकार प्राता है । समराइच्चकहा में नायक-नायिकाओं के गमन या अन्य क्रिया व्यापार का स्वभावोक्ति अलंकार में निरूपण किया गया है । यथा- गरुयाए नियम्बस खीणयाए समुद्दतरणे णं सोमालयाए दे हस्स वीसत्थाए मम सन्निहाणे णं नसक्केइ चंकमिउं । स० पृ० ५। ४३३ | यहां नायिका के गमन करने में बाधा का निरूपण किया गया है । १७- भाविक । · इस अलंकार में भूत अथवा भावी अद्भुत पदार्थ का वर्तमान के समान चित्रण किया जाता है । हरिभद्र ने इस अलंकार का प्रयोग अनेक स्थलों पर किया है । यथा- परिचिन्तियं च तुमए गुरूवएसपरिवालणानिहसो । वयारि च्चिय एसो म्हाणं पसवनाहो त्ति ॥ स० पृ० ८। ८०३ । २१--२२ एडु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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