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________________ (४) निदा २८६ विपन्न नायक के लिए अकस्मात् सहायक की प्राप्ति। धरण के कंठगत-प्राण रहने पर रत्नद्वीप से हेमकुंडल आता है और उसे व्यन्तरी " चंगुल से छुड़ाकर बचाता है। १०--आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूढ़ियाँ हरिभद्र एक सन्त है। अतः इन्होंने अपनी प्राकृत कथाओं में आध्यात्मिक और मनोविज्ञान सम्बन्धी अनेक रूढ़ियों का उपयोग किया है। यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति का मूलाधार आत्मा का अस्तित्व है तथा जन्मान्तर और कर्मफल की अनिवार्यता में विश्वास करना भी आवश्यक है। इस वर्ग की प्रमुख कथानक रूढ़ियां निम्न हैं:-- (१) संसार की कठिनाइयों से संतप्त नायक को केवली या गुरु की प्राप्ति-- समराइच्चकहा के प्रत्येक भव में। (२) आचार्य या गुरु से निर्वेद का कारण पूछना। (३) पूर्वभवावली कथन। निदान का कथन, पृ० ५४ । कथाक्रम में धर्म के स्वरूप और ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा--प्रायः सभी भवों की कथा में। (६) सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण जानना--राजा अरिमर्दन ने अवधिज्ञानी मुनि अमर गुप्त से सम्यक्त्व प्राप्ति का कारण पूछा--उत्तर में भवावली कथन। (७) असंभव बात का कारण जानने की इच्छा--नारियल के वृक्ष की जड़ पर्वत से फूटकर नीचे क्यों गयी है ? उत्तर में अवान्तर कथा जाल । (८) वैराग्य प्राप्ति के निमित्तों की योजना--श्वेत केश, शवदर्शन, रोगी व्यक्ति का दर्शन और वृद्ध व्यक्ति का दर्शन--वैराग्य वृद्धि में सहायक है। हरिभद्र ने सुरेन्ददत्त राजा को “जाव आगओ में पलियच्छलेण धम्मदूओं" द्वारा विरक्त किया है। कुमार समरादित्य को अन्य शेष तीनों ही निमित्त दिखलाई पड़े हैं। जिससे उसका वैराग्य भाव दृढ़ हुआ है। (९) केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय विचित्र आश्चर्यों का दर्शन--समराइच्चकहा के सभी भवों में जहां भी केवलज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन है, वहां पथ्वी चंचल हो जाती है, सुगन्धित वाय चलने लगती है। पश अपना स्वाभाविक वैरभाव भूल जाते हैं, समस्त ऋतुओं के फल-पुष्प एक साथ प्रकट हो जाते हैं, पशु-पक्षी सभी प्रमुदित हो जाते है और सर्वत्र आनन्द तथा प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है। (१०) जातिस्मरण--पूर्वभव का स्मरण होने से पात्र की जीवन धारा ही बदल जाती है। सर्वत्र इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग हरिभद्र की प्राकृत कथाओं में पाया जाता है। (११) जन्म-जन्मान्तरों की शृंखला तथा एक जन्म के शत्रु का अगले जन्म में भी शत्रु के रूप में रहना--समराइच्चकहा के सभी भवों की कथा में यह रूढ़ि व्यवहृत है। (१२) तपस्या के समय में उपसर्ग और उनका जीतना--इसका भी व्यवहार प्रायः सर्वत्र हुआ है। इस प्रकार हरिभद्र ने कथानक रूढ़ियों का प्रयोग कर अपनी कथाओं को सरस, गतिशील, चमत्कारपूर्ण और प्रभावोत्पादक बनाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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