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________________ २७४ ३४ - पशु-पक्षियों से सम्बद्ध कथानक रूढ़ियां लोक प्रचलित कथाओं के समान हो कतिपय अभिजात कथाओं में भी पशु-पक्षी मनुष्यों से बातचीत करते हैं, उनका दुःख-दर्द समझते हैं और यथा अवसर उनकी सहायता भी करते हैं। लोक मानस ने पशु-पक्षियों से एक स्नेह सम्बन्ध स्थापित किया है और उसकी अभिव्यक्ति कथा साहित्य में हुई हैं। इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग हरिभद्र ने निम्न रूपों में किया है: --- (१) मिलित षड्यंत्र | (२) मछली द्वारा रुपयों का भक्षण । (३) नायक नायिका की क्रीड़ा सामग्री के रूप में । ( ४ ) भक्ति करके स्वयं शुभफल प्राप्ति के रूप में । १ – मिलित षड्यन्त्र इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग द्वितीय भव की कथा में शुक और शुकी के मिलित षड्यंत्र के रूप में हुआ है । चन्द्रदेव के जीव हाथी की यज्ञदेव का जीव शुक वंचना करना चाहता है । वह अपनी पत्नी से मिलकर हाथी का बध कर देना चाहता हूं । अतः दोनों कूटनीति द्वारा उसे एक पहाड़ की चोटी से गिर जाने को प्रेरित करते हैं । शुक का यह कार्य कथानक को गतिशील बनाने में बहुत सहायक है, वातावरण के विस्तार में भी यह अभिप्राय कम गतिशील नहीं है । आगे घटित होने वाली घटनाओं की पटभूमि का निर्माण भी इसके द्वारा हो जाता है । २ -- मछली द्वारा रुपयों का भक्षण इस कथानक रूढ़ि का प्रयोग उस स्थिति में होता है जब भाग्य - सिद्धि या धनसंचय के दोष दिखलाये जाते हैं । यह कथानक रूढ़ि बहुत प्रिय है । प्राचीनकाल से ही इसका प्रयोग होता आ रहा है। एक लघुकथा में हरिभद्र ने बतलाया है कि दो दरिद्र भाई परदेश से धनार्जन करके लाते हैं। मार्ग में संचित धन की थैली जिसके पास रहती हैं, उसी की बुद्धि भूष्ट हो जाती है और वही दूसरे की हत्या करने की बात सोचने लगता हैं । फलतः वे दोनों उस धन की थैली को एक तालाब में डाल देते हैं। संयोगवश मछली उन रुपयों को खा जाती है और वही उनकी दासी द्वारा मारी जाती है । दासी द्वारा छिपाते समय रुपयों की थैली उनकी मां को भी दिखलायी पड़ जाती है। इसके लिए वृद्धा और दासी में मारपीट होती है । बुढ़िया मारी जाती हैं और पुत्रों को मां के शव के पास वह थैली तथा मछली पड़ी दिखलायी पड़ती है। इस कथानक रूढ़ि द्वारा निम्न कथा तथ्यों को सिद्ध किया गया है : (१) गल्पवृक्ष का मूल स्कन्ध और शाखाओं की ओर फैलाव । ( २ ) रागात्मक सम्बन्धों की सफलता । (३) जन्म-जन्मान्तर के कार्य-कारण की सिद्धि । (४) कथा में चमत्कार और मोड़ उत्पन्न करने के लिए कुतूहल का सृजन । १ - - स०, पृ० १०८ । २-- द०हा०गा० ५५, ०७०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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