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________________ २५३ शकुन मालम पड़ता है, अतः वह अपने दोनों कुत्तों को उनके ऊपर छोड़ देता है । खूंखार श्वान, जिन्होंने अबतक न मालूम कितने लोगों का शिकार किया हैं, मुनिराज पर झपट पड़ते हैं। रोष और क्षोभ भर कुक्कुर मुनि के पास पहुँचते हैं, पर यहां विचित्र घटना घटित होती है । कुत्ते मुनिराज के समक्ष जाते ही उनके तेज से अभिभूत हो जाते हैं । मुनि के चरणों में जाकर लोटने लगते हैं । वे अपने हिंसक भाव को छोड़ दयालु और श्रहिंसक बन जाते हैं । धूर्त्ताख्यान में श्रमानवीय तत्त्वों का पूरा समावेश हुँ । कमण्डलु में हाथी का घुस जाना, छः महीने तक उसीमें घूमना और निकलते समय केवल पूंछ के बाल का अटककर रह जाना, आदि असंभव और प्रबुद्धिसंगत बातें श्रमानवीय और अप्राकृतिक दोनों ही तत्त्वों के अन्तर्गत आती हैं । चण्डकौशिक का महावीर को डसना और महावीर पर विष का प्रभाव न पड़ना तथा ज्यों-के-त्यों रूप में खड़े हंसते रहना भी अमानवीय या प्रतिमानवीय तत्त्व ही है 1 १ (११) अप्राकृतिकता अप्राकृतिक से अभिप्राय उन कार्यों से हैं, जो प्रकृति विरुद्ध हों। जैसे सिंह की प्रकृति हिंसक और मांसाहारी है, यदि किसी स्थिति में उसे श्रहिंसक और शाकाहारी दिखलाया जाय, तो यह अप्राकृतिक तत्त्व के अन्तर्गत आयेगा । उपसर्ग के लिये अग्निकाजल, सांप का पुष्पमाला बन जाना, तन्त्र-मन्त्रों का अद्भुत प्रभाव, शकुन अपशकुन और स्वप्न का महत्व बतलाना श्रादि बातें इस तत्व के अन्तर्गत आती हैं । लोककथाओं में इस तत्त्व का बहुलता से उपयोग हुआ है । हरिभद्र ने अपनी प्राकृत कथाओं में इस तत्व का कई रूपों में व्यवहार किया है। यहां एक लघुकथा उद्धृत कर उक्त तस्व की पुष्टि करने की चेष्टा की जायगी । नन्दवंश का उन्मूलन कर चन्द्रगुप्त को पाटलीपुत्र का राज्य किस प्रकार प्राप्त हो, यह चाणक्य सोचने लगा । उसने अर्थसंग्रह के लिये एक यन्त्रपाश बनाया और किसी देव की कृपा से उसके पाशे प्राप्त किये । उसने इस पाशे को नगर के तिमुहानी और चौमुहानी श्रादि प्रमुख रास्तों पर रखवा दिया । चाणक्य ने उस द्यूतपाश के पास एक दीनार भरी थाली भी रखवा दी और यह कहा गया कि जो कोई जुए में जीत जायगा, उसे यह दीनार भरी थाली दी जायगी और जो हार जायगा, वह एक दीनार देगा | इस देव निर्मित पाशे के द्वारा किसी का भी जीतना संभव नहीं था, सभी हारते जाते और एक-एक दीनार देते जाते । इस प्रकार चाणक्य ने बहुत सा धन अर्जित कर लिया 1 (१२) अतिप्राकृतिकता- स्वर्ग के देवताओं का इस भूतल पर प्राना, देवताओं का मनुष्य जैसा कार्य करना, समुद्र को देवता मानना, राक्षस या भूत-प्रेतों का उपद्रव उत्पन्न करना आदि कार्य प्रतिप्राकृतिक तत्व के अन्तर्गत हैं । हरिभद्र की लघुकथा तथा बृहत् कथाओं में इस तस्व का सुन्दर सन्निवेश हुआ है । एक कथा में आया है कि एक युवा पुरुष गाड़ी पर अपनी पत्नी को सवार कराकर कहीं जा रहा था । मार्ग में उसकी पत्नी को प्यास लगी, अतः वह जल के लिये गाड़ी से उतरकर गयी । एक व्यन्तरी ने उस युवक पुरुष को १--उप० गा० १४७, पृ० १३० । २ --- उप० गा० ७, पृ० २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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