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________________ २३३ सन्देह नहीं कि हरिभद्र ने दलित और पतित व्यक्तियों के चरित्रों का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है । जिन पात्रों की मध्य युग में उपेक्षा की जाती थी, उन पात्रों को सामन उपस्थित करने का साहस उन्होंने किया है । हरिभद्र की पात्र परिधि और उनके चरित्रचित्रण में मध्यकालीन समाज का यथार्थरूप चित्रित हुआ है । राज परिवारों में होनेवाले अनीति अत्याचारों का बड़ा ही सुन्दर भण्डाफोड़ है । राज्यसत्ता के लिये भाई-भाई किस प्रकार झगड़ते थे, यह जय-विजय के चरित्र से स्पष्ट हैं । रनिवास में रहने वाली राजमहिषियां सुन्दर राजकुमार को देखकर मुग्ध हो जाती थीं और उनसे अनैतिक प्रस्ताव करती थीं, यह अनंगवती के चरित्र से जाना जा सकता है । परिवार, समाज और व्यक्ति इन तीनों का हरिभद्र ने बहुत सुन्दर चरित्र चित्रण किया हैं । हम यहां प्रमुख पात्रों का चित्रांकन करने की चेष्टा करेंगे । गुणसेन क्रीड़ाप्रिय राजकुमार है । शैशवावस्था में वह अत्यन्त नटखट है । राज-पुरोहित or पुत्र अग्निशर्मा अपनी कुरूपता के कारण इसकी क्रीड़ा का केन्द्र बनता है । यह छोटे बच्चों की टोली सहित उस अग्निशर्मा को गधे पर सवार कराकर और उसके सिर पर टूटे सूप का छत्र लगाकर ढोल, मृदंग, बांसुरी, कांस्य आदि वाद्यों की ध्वनि और तुरह की कठोर आवाज के बीच महाराज की जय हो, जय हो, के नारे लगाते हुए सड़कों पर उसे घुमाता है । इस प्रकार बचपन के चरित्र की एक झांकी हमें कौतुकी के रूप में मिलती है । वयस्क होने पर महाराज पूर्णचन्द्र गुणसेन का विवाह संस्कार सम्पन्न करते हैं और राज्याभिषेक कर तपश्चरण करने चले जाते हैं । गुणसेन श्रत्यन्त वीर - पराक्रमी राजा है, यह अनेक देशों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार करता है । बड़े-बड़े सामन्त और वीर इसके अधीन हैं। इसका निर्मल यश सर्वत्र विख्यात है । यह धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थी का निर्विरोध रूप से सेवन करता है । कलाओं के प्रति अभिरुचि है, अतः नाटक, काव्य और नृत्य द्वारा मनोरंजन करता है । भ्रमणशील भी है, प्रातःकृत्य सम्पादित कर वसन्तपुर के बाहर घोड़े पर सवार होकर भ्रमण करने चला जाता है । थककर सहस्रास्रोद्यान में विश्राम करने लगता है । एक दिन विश्राम करते समय सुपरितोष तपोवन से ऋषि नारंगियों की भेंट लेकर आते हैं। राजा गुणसेन कुलपति के दर्शन करने जाता है और उन्हें समस्त ऋषि परिवार सहित अपने यहां भोजन का निमंत्रण देता है । यहां अग्निशर्मा तपस्वी का उग्रतपश्चरण और कठोर नियम से अवगत होते हैं । वह मासोपवासी अग्निशर्मा के दर्शन करने जाता है । ऋषिभक्त राजा ऋषि को नमस्कार, वन्दन करने के पश्चात् उग्रतपश्चरण का कारण पूछता है। अग्निशर्मा तपस्वी दारिद्र्य आदि के साथ कल्याणमित्र गुणसेन को अपनी विरक्ति का कारण बतलाता है । राजा गुणसेन को अपने मन में अत्यधिक पश्चात्ताप होता हैं । विगत घटनाएं चलचित्र की तरह उसके मस्तिष्क में घूम जाती हैं : राजा सोचता है -- इस महानुभाव ने अपनी साधुता के कारण ही मेरे द्वारा किये गये अपमान को उपकारप्रद प्रेरणा मान लिया है । श्रहो ! मुझ पापी ने भयंकर प्रकार्य किया है । अतः मैं अपनी कलंकित और निन्दित आत्मा का परिचय देता हूं। इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए राजा गुणसेन ने अपना परिचय अग्निशर्मा को दिया । राजा गुणसेन का हृदय अत्यन्त पवित्र है, गंगा की निर्मल धारा के समान उसके मस्तिष्क और हृदय में किसी भी प्रकार की कालिमा नहीं है । जब अग्निशर्मा तीन बार पारणा के लिये श्राता है और विघ्न उपस्थित रहने के कारण लौट जाता है । जबजब राजा को उसके लौटने का समाचार मिलता है, तब-तब वह अनुनय-विनय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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