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________________ २३२ चरित्र विकास में अन्तर्द्वन्द्व या भीतरी संघर्ष कथा के पात्रों में सजीवता एवं जीवन तभी डाला जा सकता है, जबकि पात्र अपने क्रियाकलापों के परिणाम एवं दुष्परिणाम के फलों पर विचार करने में समर्थ हों । यद्यपि कथा के पात्र काल्पनिक एवं कथाकार की बुद्धि की उपज है, फिर भी वह उसी दिशा में उन्हें रखता है, जिसमें कि वह संसार के परिचित मनुष्यों को देखता है । प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में किसी कार्य को करने से पूर्व शंका और सन्देह उत्पन्न होते हैं और उनका समाधान करने पर ही कार्य में प्रवृत्ति देखी जाती है । व्यक्तिगत हानि-लाभ के अतिरिक्त मनुष्य, समाज, जाति, धर्म इन सबके ऊपर भी दृष्टिपात करके जबतक अपने कार्यों को न्यायसंगत नहीं समझ लेता, तबतक व्यक्ति श्रागे बढ़ने का साहस नहीं करता है । नैतिकता और अनैतिकता का जन्म इसीका परिणाम है । व्यक्ति के हृदय में मानवता के प्रति एक ललक एवं ममत्व की भावना आदिकाल से रही है । अमानवीय भावनाओं के प्रति मनुष्य की बुद्धि बिना सोचे-समझे नहीं बढ़ती । मनुष्य इन्हीं नंतिक और अनंतिक कार्यों से उठता और गिरता है और यही कारण है जिससे मानव बुद्धि कार्य में रत होने से पूर्व करूं और न करूं के प्रश्न का समाधान किये बिना नहीं बढ़ सकती । श्रतएव मनुष्य के चरित्र में अन्तर्द्वन्द्व का महत्वपूर्ण स्थान है । प्रत्यक्ष जीवन में जिस प्रकार संघर्ष उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार कथा के पात्रों के जीवन में भी । कठपुतलियों के समान पात्रों का नर्तन ही उनका जीवन नहीं है, बल्कि आभ्यन्तर या बाह्य परिस्थितियों के संघर्ष में डालकर पात्रों के चरित्र का विकास दिखलाना यही जीवन का वास्तविक रूप है । हरिभद्र ने निदानतत्त्व का समावेश करने पर भी पात्रों के अन्तः और बाह्य संघर्ष दिखलाये हैं । श्रग्निशर्मा निदान का संकल्प संघर्ष के कारण ही करता है । बाल्यावस्था में अपमानित होने पर उसके मन में नाना प्रकार के विचारों का तूफान उठता है, फलतः अवचेतना में निदान का सन्निवेश यहीं से होता है । विनयन्धर उपकारी का स्मरण कर द्वन्द्व में पड़ जाता है कि राजाज्ञा का पालन करें या उपकारी की रक्षा । उसके मन का तूफान भी अनेक रूपों में प्रकट होता है। आदर्श पात्र होने के कारण वह कुमार के समक्ष सारी परिस्थितियों और घटित होने वाली घटनाओं का निरूपण कर देता है तथा उन्हींसे इसका प्रतिकार पूछता है । इस प्रकार हरिभद्र ने पात्रों की परिस्थितियों के प्रति संवेदनशीलता, उनके राग-विराग, उनकी महत्वाकांक्षाएं, उनके अन्धविश्वास, पक्षपात, मानसिक संघर्ष, दया, करुणा, उदारता आदि मानवीय गुण और नृशंसता, क्रूरता, अनुदारता आदि दानवीय गुणों का चित्रण किया है । पात्रों की सबलता और निर्बलता का सुन्दर चित्रण भी संघर्ष के कारण ही समराइच्चकहा में उबुद्ध हुआ है । पात्र और शील परिपाक पात्र कथावस्तु के सजीव संचालक हैं, जिनसे एक ओर कथावस्तु का आरम्भ, विकास और अन्त होता है, दूसरी ओर जिनसे हम कथा में आत्मीयता प्राप्त करते हैं । कथा में पात्र निर्माण के लिये हरिभद्र ने तीन बातों पर विशेष ध्यान दिया है. सजीव हैं, स्वभाविक हैं और हैं अनुभूति के धरातल पर निर्मित । पात्रों की सृष्टि मुख्य संवेदना के अनुकूल है तथा पात्र ऐसे हैं, जो प्रायः सर्व सुलभ और सप्राण हैं । --पात्र यह पहले ही लिखा जा चुका है कि हरिभद्र के पात्र सभी वर्ग और सभी अवस्था के हैं । सेठ साहूकार, राजा-मंत्री, डोम- चाण्डाल, भिल्ल आदि सभी जाति और वर्ग क पात्रों के साथ बालक से लेकर बूढ़े तक सभी अवस्थावाले पात्र भी अंकित हैं । इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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