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________________ २११ आठवें कथानक में अग्निशर्मा द्वारा कल्याणमित्र कहे जाने पर -- कारण से, कुमार गुणसेन को आत्मग्लानि कार्य की उत्पत्ति होती है । नौवें कथानक में अग्निशर्मा मासोपवास के अनन्तर पारण के लिए महाराज गुणसेन के यहां जाता है, किन्तु महाराज की शिरोवेदना के कारण राजप्रासाद में पुरजन- परिजन के व्यस्त रहने से पारण किये बिना यों ही लौट आता है--कार्य । दसवें कथानक में शत्रु- प्राक्रमण रूपी कारणों से पारणा का प्रभाव रूपी कार्य सम्पन्न होता है । ग्यारहवें कथानक में पुत्रो व में व्यस्त रहने रूपी कार्य निष्पन्न होता है । बारहवें कथानक में लगातार तीन बार पारण के न होने से तथा क्षुधा के प्रत्यधिक तीव्र होने से श्रग्निशर्मा का विवेक लुप्त हो जाता है और वह बचपन की घटनाओं का स्मरण कर -- कारण, निदान --कार्य, को बांधता है । तेरहवें कथानक में पारणा के सम्पन्न न होने कारण से कुमार गुणसेन राजधानी में लौट प्राता है - कार्य । चौदहवें कथानक में महाराज गुणसेन के वैराग्य में मृतक दर्शन- कारण बनता है । पन्द्रहवें कथानक में अग्निशर्मा का जीव विद्युत्कुमार निदान के कारण मुनि गुणसेन से बदला चुकाता है, उसे अग्नि प्रज्वलित कर दग्ध कर देता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कथानकों में कारण-कार्य की श्रृंखला पूर्णरूप से निहित है । सभी कथानकों के भीतर कारणों का समावेश बड़े ही रहस्यात्मक ढंग से किया गया है । अवान्तर कथाओं में भी कथानकों की श्रृंखला कार्य-कारण व्यापार पर ही अवलम्बित हूँ । अतः संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि हरिभद्र के कथानकों में वस्तु का प्रारंभ किसी स्थल विशेष से होता है तथा उन्होंने कार्य-कारण परिणाम की एक अपनी योजना बनायी है । ये आरंभ में या तो किसी परिस्थिति विशेष का विवरण देते हैं और उससे विकसित होने वाले चरित्र अथवा भाव का उदय दिखलाते हैं अथवा कार्य से ही कथा का प्रारम्भ कर उसी के अनुरूप परिणाम दिखलाते हैं । बीच-बीच में संघर्षमयी स्थिति को दिखलाकर विशेष प्रकार का प्रभाव उत्पन्न करते चलते हैं । जैसा भी क्रम हो ये कथा की प्रेरक शक्ति के अनुरूप विषय का प्रसार दिखलाते जाते हैं और निश्चित परिणाम पर पहुंचने के पूर्व अपनी एक ऐसी बुद्धिमूलक सजावट तैयार करते हैं, जिसके कारण कथा का फल यथार्थ और प्रकृत मालू पड़ने लगता है । हरिभद्र ने कथानक योजना में इस सिद्धांत का सदा पालन किया है कि कथानक में किसी भी प्रकार की जटिलता उत्पन्न न हो, यतः किसी भी प्रकार को जटिलता में उसकी अपनी अवान्तर बातें इतनी अधिक या गयी हैं जिससे कथा के एकोन्मुखता के बिगड़ने का भय नहीं रहा है । जटिल चरित्रवाले पात्रों के चरित्र-चित्रण के अवसर पर भी कथानक की गतिविधि उलझने नहीं पायी है । हरिभद्र ने जहांतक संभव हुआ है, कथानकों द्वारा सीधे विषय का प्रतिपादन किया है । अवान्तर कथाओं के जटिल तन्त्र के रहने पर भी कथानक की गति में कौशल और त्वरा बंग का समावेश सर्वत्र है । कोई चरित्र चाहे वह चरम सीमा की ओर बढ़ रहा हो अथवा अपने उच्चतम उत्कर्ष से निगति की ओर चलकर अनुमान क्षेत्र को आन्दोलित कर रहा हो, उसमें पर्याप्त क्षिप्रता के साथ तीव्र गतिशीलता मिलेगी और यही कारण है कि हरिभद्र के कथानकों में प्रभावान्विति पूर्णतया झंकृत अथवा स्कुरित होती हुई प्रत्यक्ष गोचर होती है । हरिभद्र ने अपने कथानकों के विकास में इस बात पर भी ध्यान रखा है कि कथानक बुद्धिसंगत, प्रकृत और यथार्थ रहने चाहिए । यहां उनको यथार्थता का अभिप्राय चरित्र की किसी वृत्तिविशेष, किसी घटना की अभिव्यंजना, किसी वातावरण का चित्रांकन एवं देशकाल के विशेष कथन से है । किसी चरित्र प्रथवा भावदशा की अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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