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________________ १७५ लघु कथाएं समराइच्चकहा और धूर्ताख्यान इन दो बृहत् कथाग्रंथों के अतिरिक्त हरिभद्र की लगभग एक सौ बीस लघु प्राकृत कथाएं दशवकालिक टीका में और उपदेशपद में उपलब्ध है। यद्यपि इन कथाओं का प्रयोग व्याख्या के स्पष्टीकरण के लिए किया गया है पर इनका स्वतंत्र अस्तित्व भी है। मनुष्य का जीवन कार्यों से प्रारम्भ होता है, विचारों से नहीं। कार्यों के मल में आवश्यकता और सुख-दुःख (प्लेजर एण्ड पेन) को अनुभूतियां प्रधान रूप से रहती है। अतः एक समय में एक ही साथ सार्वभौमिक, सनातन और सामुदायिक वासना की अभिव्यक्ति ने कथा का रूप धारण किया है। यह सत्य है कि मनुष्य का प्रत्येक कार्य कथा है। मनुष्य ने आदिम काल में जब अपना पहला सपना पहले-पहल सुनाया होगा, तो वह पहली कहानी रही होगी। व्यक्ति के मानस में नाना प्रकार के बिम्ब-इमेज रहते हैं। इनमें कुछ व्यंग्य के प्रात्मगत बिम्ब है जो घटनाओं द्वारा बाहर व्यक्त होते हैं। प्रेम, क्रोध, घृणा प्रादि के निश्चित बिम्ब हमारे मानस में विद्यमान है। हम इन्हें भाषा के रूप में जब बाहर प्रकट करते हैं, तो ये बिम्ब लघु कथा बनकर प्रकट होते हैं। कलाकार उक्त प्रक्रिया द्वारा ही लघु कथाओं का निर्माण करता है। इसके लिए उसे कल्पना, सतर्कता और वास्तविक निरीक्षण, अभिप्राय ग्रहण एवं मौलिक सृजनात्मक शक्ति को आवश्यकता होती है। हरिभद्र ने अपनी लघु कथाओं में उक्त उपादानों को ग्रहण किया है। हम उनकी प्राकृत कथाओं का वर्गीकरण उपस्थित करेंगे। हमारे इस वर्गीकरण का आधार मानव जीवन का वह धरातल है जिस पर उसका कथा-साहित्य निर्मित है। अतः जीवन और जगत से घटनाएं और परिस्थितियां चुनकर ही हरिभद्र ने कथा का ताजमहल खड़ा किया है: (१) कार्य और घटना प्रधान । (२) चरित्र प्रधान । (३) भावना और वृत्ति प्रधान । (४) व्यंग्य प्रधान । (५) बुद्धि चमत्कार प्रधान । (६) प्रतीक प्रधान । (७) मनोरंजन प्रधान । (८) नीति या उपदेश प्रधान–दृष्टान्त कथाएं । (९) प्रभाव प्रधान। उदाहरण के रूप में आयी हुई जिन कथानों में घटना और कार्यों की प्रधानता होती है, वे कार्य और घटना प्रधान कथाएं है। घटना और कार्यों को महत्वपूर्ण उपस्थिति के साथ अद्भुत योजना-सौष्ठव भी रहता है। पात्रों के कार्यो को भी महत्ता दी जाती है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें चरित्र, उपदेश या कथा के अन्य तत्व है ही नहीं। हरिभद्र की कार्य और घटना प्रधान निम्नांकित प्राकृत लघु कथाएं (१) उचित उपाय (द० हा० गा० ६६, पृ० ८९)। (२) एकस्तम्भ का प्रासाद (द०हागा० ६२, पृ० ८१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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