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________________ १७० जाता है । इसमें एक विशेष प्रकार का कौशल दिखायी पड़ता है । अवश्य ही इस कौशल में बुद्धि का आधार अपेक्षित है, जिसका महत्व रचनाकार और अध्येता दोनों के लिये रहता है । कथाकार ऐसे स्थलों पर पूरी सावधानी रखता है, वह पूरी संवेदनशीलता उद्बुद्ध करने में सजग रहता है। नूतन विधान अथवा चमत्कार - प्रेम अधिक जोर मारता है और कथानक दुहरे हो उठते हैं । कथा के मूलभाव और प्रेरणा के अनुरूप ही वस्तु का संप्रसारण किया गया है । राग्य या धर्मप्रधान रहने पर भी कथा कौतूहल को जगाती जाती है । वक्रता या उतारचढ़ाव भी होते चलते हैं । मध्य-मध्य में श्रायी हुई लोककथाएं भी घटनाक्रम को समेटे चलती हैं, जिससे मनोरंजन और चरित्र-चित्रण ये दोनों ही कार्य होते जाते हैं । कारण-कार्य परिणाम -- शुभाशुभ कर्म, तज्जन्य संस्कार, बन्ध, पुनः उदय, पश्चात् बन्ध, बन्धानुरूप उदय, अपनी एक निश्चित योजना के अनुसार घटित होता जाता है । प्रतीकों की सार्थकता और उनका समुचित प्रयोग भी इस कथा में हुआ हैं । ये प्रतीक मात्र अलंकरण का कार्य या व्याख्या ही नहीं करते हैं, किन्तु सुप्त या दमित अनुभूतियों को जागृत भी कर देते हैं । स्वप्न में दिखलायी पड़ने वाला "सूर्य" निम्न चार कार्य सिद्ध करता है ―― (१) गर्भस्थ बालक की तेजस्विता । (२) पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति -- केवल ज्ञान उत्पन्न होना । (३) संसार के प्रति श्रलिप्तता । (४) धर्मोपदेश का वितरण । इसी प्रकार परिक्लेशेन प्रसूति, दया, ममता, उदारता आदि के प्रतीक हैं । इस कथा की शैली में दर्शन, तर्क और कारण -कार्य भाव पर बहुत जोर दिया है । सरल कथानक को गतिविधि देते हुए लघुविस्तार के साथ कथा को रसमय बनाया गया है। जहां वर्णन या श्राख्यान अंश रहता है, वहां कथा की शैली रसमयी और प्रभावोत्पादक बन जाती है । मानसिक और शारीरिक संघर्ष भी कथा को गतिशील बनाते हैं । ऐसा लगता है कि पूरी कथा में मानसिक तनाव विद्यमान हैं। कोई पात्र यौन विकृति से पीड़ित है तो कोई लोभ प्रकृति से । मानसिक स्थितियों में कहीं भी सामंजस्य नहीं है । हां धार्मिक उपदेशों ने कथारस को न्यून भी किया है । धूर्त्ताख्यान भारतीय व्यंग्य काव्य का अनुपम रत्न धूर्त्ताख्यान है। मानव के मानस में जो विम्ब या प्रतिमाएं सन्निहित रहती हैं, उन्हीं के आधार पर वह अपने आराध्य या उपास्य देवी-देवताओं के स्वरूप गढ़ता है । इन निर्धारित स्वरूपों की अभिव्यंजना देने के लिए पुराण एवं निजन्धरी कथानों का सृजन होता है । हरिभद्र ने धूर्त्ताख्यान में पुराणों और रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्यों में पायी जाने वाली असंख्य कथाओं और दत्त कथाओं की अप्राकृतिक, श्रवैज्ञानिक और बौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा के माध्यम से निराकरण किया है । वास्तविकता यह है कि संभव और दुर्घट बातों की कल्पनाएं जीवन की भूख नहीं मिटा सकती हैं । सांस्कृतिक क्षुधा की शान्ति के लिए संभव और तर्कपूर्ण विचार ही उपयोगी हो सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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