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________________ १४३ (२) समस्त मनोनीत पात्रों को घटनास्थल पर ले श्राकर, उनकी मनोवृत्तियों क्रोधावि का विश्लेषण, विवेचन तथा इन वृत्तियों का जन्म-जन्मान्तर में फल । (३) मूल कथावस्तु का संकलन और क्रमिक विकास । (४) क्रोध, मान श्रादि प्रवृत्तियों को विस्तार देने के लिए वातावरण को परमावस्था की ओर ले जाना और कथा में मौलिक मनोवृत्तियों का स्थान-स्थान पर विवेचन करते चलना । २० । पात्रबहुलता - - प्राकृत कथाओं के शिल्प में विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियों और मनोवृत्तियों वाले सभी वर्ग के पात्र आते हैं । पात्रों को मूलतः दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं -- मानवपात्र और मानवेतर पात्र । मानवेतर पात्रों में देव, दानव और तिर्यच पशु-पक्षी सम्मिलित हैं। मानवपात्रों में नर और नारी दोनों ही प्रकार के पात्र आते हैं । नर संघर्षशील पात्र के रूप में वर्णित है नारी मोहपक्ष के उद्घाटन के लिए उल्लिखित है । देव विवक, मंगल, शुभ और कल्याण के रूप ; दानव अशुभ प्रविवेक, अमंगल और कल्याण के रूप में तथा पशु-पक्षी किसी विशेष शिक्षा को देने के रूप में उल्लिखित है । चरित्रों की दृष्टि से इन पात्रों का चरित्र वर्गप्रतिनिधि ( Type character ) ज्यादा हैं, व्यक्ति चरित्र कम । प्राकृत कथाओं के इस स्थापत्य की यह विशेषता है कि कथाकार अधिक पात्रों को योजना करके भी कथा में स्वाभाविकता बनाए रखता है । कथानक में सन्तुलन बनाए रखने की पूरी चेष्टा करता है । कथा के संविधान को महत्वपूर्ण और समद्ध बनाए रखने के लिए इन पात्रों का उपयोग कथाकारों ने मंडनशिल्प के रूप में किया है । २१ | औचित्य योजना और स्थानीय विशेषता -- कथा की विविध घटनाओं, उसके विविध पात्रों तथा उनके क्रिया-कलापों और विभिन्न परिस्थितियों में उनकी प्रतिक्रियात्रों को सजीवता और स्वाभाविकता प्रदान करने के लिए देश-काल के औचित्य की योजना के साथ स्थानीय रंग की समुचित योजना भी होनी चाहिए । स्थानीय रंग का महत्त्व दो कारणों से बढ़ जाता है। एक तो यह कि इसके होने से कथा में प्रभावात्मकता श्राती हैं और दूसरे यह कि उसकी कृत्रिमता नष्ट हो जाती हैं तथा स्वाभाविकता बढ़ जाती है । प्राकृत कथाओं में स्थानीय रंग की समुचितता का पूरा ध्यान रखा गया है । प्राकृत कथाकारों की धारणा है कि उनके द्वारा प्रस्तुत की गई स्थानीय विशेषताएं स्वतः उसकी सीमाएं निर्धारित कर देती हैं और वह कथा किसी विशेष क्षेत्रीय वर्गों का ही मनोरंजन नहीं करती, किन्तु नवीनता के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने में सहायक होती है । मानवमात्र इन कथाओं से प्रेरणा ग्रहण कर सकता है। देश-काल की सीमा का उल्लंघन कर जीवनोपयोगी तत्व इनमें प्राप्त किये जा सकते हैं । २२ । चतुर्भुजी स्वस्तिक सन्निवेश -- प्राकृत कथा साहित्य के स्थापत्य के अन्तर्गत एक तत्व चतुर्भुजः स्वस्तिक भी आता है । यह उस मंडल या वृत्त के समान है, जिसके उदर में चार मानवतावादी तत्वों-- दान, शील, तप और सद्भावना का समकोण प्रतिष्ठित रहता है । यह जीवन का सुदर्शन चक्र नित्य घूमता रहता है । इस स्वस्तिक की पहली भुजा दान है । प्रकृति ने स्वभाव से ही जीवमात्र को दानी बनाया है । जो केवल बटोरता है, बांटना नहीं जानता, उसके जीवन में श्रानन्द नहीं आ सकता है । संचय करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा कि संचय का उद्देश्य मात्र संचय न हो, बल्कि दान होना चाहिए । जो अपने ही स्वार्थी और अपनी ही मान्यतानों में बंधा रहता है, वह व्यक्ति दान नहीं दे सकता और अहं की परिधि में आबद्ध हो जाने के कारण वह दास बना रहता है । अतः दान देने से सच्चा संतोष मिलता है । वस्तुत्रों के प्रति ममता का त्याग दान का एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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