SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ भी कुतूहल उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकता है कि प्राखिर यह पुष्प इस बच्चे को कौन देता है ? अन्त में रहस्य का स्पष्टीकरण हो जाता है । दिव्य मानुषों कथानों में लौकिक चमत्कार रहने के कारण कुतूहल का पाया जाना एक नैसर्गिक गुण है । रोचकता रहने से कुतूहल की सृष्टि भी होती चलती है । यह सत्य है कि कथा की सफलता में अप्रत्याशितता का बड़ा हाथ है । इस अप्रत्याशितता का सम्बन्ध कुतूहल से ही रहता है । प्राकृत कथाकार प्रारंभ में ही कोई ऐसा दृश्य उपस्थित कर देते हैं, जिसे देखते ही पाठक हक्का-बक्का हो जाता है और उसका फल क्या होगा तथा आगे आने वाली ऐसी कौन-सी घटनाएं हैं, जो उस दृश्य के रहस्य को अनावृत्त करती हैं, की ओर उत्सुक हो जाता है । अप्रत्याशित स्थिति से उत्पन्न कुतूहल किसी कथा के प्रारंभ में अधिक और किसी में कम रहता है । यों तो कुतूहल का सम्बन्ध कथा-व्यापी रहता है । जिस कथा में पाठक घटना के फल की कल्पना नहीं कर सके और उसे जानने के लिए उत्कंठित रहे, उस कथा में ही सुन्दर कुतूहल की योजना हो सकती हैं । प्राकृत कथाओं में लेखकों ने पाठक को इस प्रकार के वातावरण में रखा है, जहां वह श्रागे घटित होने वाली घटना के सम्बन्ध में कोई स्वरूप नहीं निर्धारण कर सकता है। ऐसे मर्मस्पर्शी स्थलों पर कथाओं में कुतूहल की योजना बड़े सुन्दर रूप में हुई हैं । यों तो प्राकृत कथाओं में घटनाओं को समग्र रूप में ही कह दिया जाता है, पर कुछ स्थल इन कथाओं में ऐसे अवश्य हैं, जहां घटना के अंश का ही निर्देश मिलता है । इन स्थलों पर जैसे कुतूहल या संस्पेंस की सृष्टि होती हैं, वैसे साधारण स्थलों पर नहीं । कथानक का सीधा और सरल रहना, कथातत्त्वों की दृष्टि से दोषपूर्ण माना जाता है । कथा की गतिविधि में मोड़ उत्पन्न करने, उसे रोचक बनाने एवं कथानक में संवेदनशीलता उत्पन्न करने के लिए कुतूहल का सृजन करना परमावश्यक है । कथा के कथानक में परिवर्तन की स्थितियां ऐसी होनी चाहिए, जिससे कथा अनेक आवत्तों के साथ झाग और फेन उत्पन्न करती हुई नदी की तीक्ष्ण धारा के समान बढ़े । घटना और परिस्थितियों के आवेगों में रहस्य का नियोजन भी कुतूहल की सृष्टि में कारण होता है । १८ । औपन्यासिकता - - प्राकृत कथाओं में अधिकांश कथाएं इतनी बड़ी हैं, जिससे उन्हें उपन्यास कहा जा सकता है । इन कथाओंों में औपन्यासिकता के निम्न कारण हैं: (१) साधारण कथा या कहानियों की अपेक्षा विशालकाय हैं । (२) भाषा - प्रवाह विलक्षण है । (३) लयात्मकता । (४) प्रधानकथा के साथ अवान्तर और उपकथाओं का जमघट | (५) दर्शन, विवेक, व्रत, चारित्र्य, शील, दानादि संबंधी व्याख्याएं और विशेषताएं । धुनिक आलोचक जिसे नोविलेट् कहते हैं, उसी को प्राकृत कथाओं में श्रपन्यासिकता समझना चाहिए | १९ । वृत्तिविवेचन - - इन कथाओं में निबद्ध पात्र और चरितों के द्वारा मनुष्य की विभिन्न वृत्तियों का विवेचन किया गया है । यहां वृत्तियों से अभिप्राय क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह आदि के विश्लेषण से है । कर्मफलवाद के अनुसार विभिन्न मानवीय वृत्तियों के शुभाशुभत्व का विवेचन कथारूढ़ियों के श्राश्रय द्वारा सम्पन्न किया गया है । इस शिल्प द्वारा Tera में दर्शन तत्त्व की योजना बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न हुई है । प्राकृत कथाकारों ने इस स्थापत्य का उपयोग निम्न सिद्धांतों को श्रात्मसात् करके ही किया है । इस से कथातत्त्वों की सुन्दर योजना हुई हैं :-1 (१) संक्षिप्त और प्रसंगोचित विवरणों की योजना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy