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________________ १३७ के साथ है । वर्णन, घटना, कथोपकथन आदि कथातत्त्वों का इसमें कोई स्थान नहीं है, परंतु कथाओं में कथातत्वों के साथ रस भी रहता है । हां, यह अवश्य है कि प्राकृत कथाओं में प्रधानता रस की नहीं है । कथाओं में रस को सर्वोपरि प्राण तत्व मान लेने से कथा का कथात्त्व ही नष्ट हो जाता है। इसी कारण प्राकृत कथाओं में चम्पू की स्थिति संभव नहीं है । कथाएं विशुद्ध कथा कोटि में आती हैं, इनमें कथातत्वों की बहुत ही सम्यक् योजना हुई है । कथाओं में सबसे प्रबल तत्व घटना है, घटना के अभाव में कथा का सृजन नहीं हो सकता है । यों तो महाकाव्य, खंडकाव्य नाटक, चम्पू आदि में भी घटना की स्थिति रहती है, किन्तु कथा में इतिवृत्त का विकास अधिक कलात्मक और चमत्कारपूर्ण होता है। कथा का अन्त भी चम्पू के अन्त की अपेक्षा भिन्न रूप से सम्पन्न होता है । चम्पू या महाकाव्य में साधारणीकरण के साथ सहृदय का वासना-संवाद होता है और सुषुप्त स्थायी भाव निर्वैयक्तिक रूप से अभिव्यक्त होकर आनन्द का प्रास्वाद कराते हैं । रस का यह प्रास्वाद संवित् श्रान्तिजन्य आनन्द है । चेतना विश्रान्ति की स्थिति में रहकर अलौकिक अनुभूति का प्रास्वादन कराती है । अतः यह स्पष्ट है कि प्राकृत कथाएं चम्पू नहीं है, यह उनका एक शिल्प विशेष है, जिसके कारण वे गद्य-पद्य में लिखी जाती है। हम इसे प्ररोचन शिल्प का नाम देना उचित समझते हैं। इस स्थापत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि कथाओं में मनोरंजन और कौतूहल का विकास, प्रसार एवं स्थिति-संचार सम्यक् रूप से घटित होते है। . १३ । उपचारवक्रता--पर्यायवक्रता को चार विशेषताओं में से उपचारवता तीसरी विशेषता है। किसी भी ऐसी कृति में, जिसमें कला के सहारे किसी आदर्श का निरूपण किया गया हो, वह उपचारवक्रता से ही संभव है। भारतीय साहित्य में प्राप्त होने वाली यह उपचारवक्ता अंग्रेजी साहित्य की शब्दावली में एक प्रकार का परगेसन--विशुद्धिकरण है। प्राकृत कथा साहित्य में उच्च आदर्श की स्थापना के लिए उपचारवक्रता-स्थापत्य का व्यवहार किया गया है । पर्यायवक्रता की दूसरी विशेषता वह है, जिसमें अभिधेय को पर्याय शब्द के द्वारा लोकोत्तर उत्कर्ष से पोषित किया जाता है । वक्रोक्तिजीवित में बताया गया है-- "अभिधेयस्यातिशयपोष... ---अर्थात् अभिधेय का उत्कर्ष सिद्ध करना पर्यायवक्रता का एक प्रकार वैचित्र्य यह भी है कि शब्द स्वयं अथवा अपने विशेषणपद के संपर्क से अपने अभिधेय अर्थ को अपने अन्य रमणीय अर्थ वैचित्र य को विभूषित करता है ।"स्वयं विशेषणेनापि रम्यच्छायान्तर स्पर्शात् अभिधेयमलंकर्तुमीश्वरः पर्यायः' में उक्त प्राशय का ही स्पष्टीकरण किया गया है । उपचारवक्रता को कथाओं में अनेक रूप उपलब्ध होते हैं । इसका एक रूप वह है, जिसमें एक वर्ण्यपदार्थ पर दूसरे पदार्थ के धर्म का आरोप दिखाया जाता है । अचेतन पदार्थ पर चेतन पदार्थ के धर्म का प्रारोप, मूर्त पर अमर्त के सौन्दर्य का आरोप, द्रव पदार्थ पर तरल पदार्थ के स्वभाव का आरोप एवं सूक्ष्म पदार्थ के ऊपर स्थूल पदार्थ का आरोप दिखलाया जाता है। उपचारवक्रता का दूसरा रूप वह है, जो रूपक प्रभृति अलंकारों में चमत्कार का कारण होता है। विशेषणवक्रता भी इसके अन्तर्गत आती है । कारक विशेषण और क्रियाविशेषण इन दोनों के विचित्र विन्यास भी इसके अन्तर्गत आते हैं। उपचारवता विरेचन सिद्धांत के तुल्य है । जिस प्रकार वैद्य रेचक औषधि का प्रयोग कर उदरस्थ बाह्य एवं अनावश्यक, अस्वास्थ्यकर पदार्थ को निकालकर रोगी को स्वस्थ बना १--व० जी० २।१० । २--वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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