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________________ १३६ पिटी-पिटाई बातों को दुहराने अर्थात् केवली के सम्मुख ले जाकर धर्मदेशना श्रवण और विरक्ति प्राप्ति के रूप में होती है । प्राकृत कथाएं महान् उद्देश्य की सिद्धि में सफल भोगायतन स्थापत्य का अन्तिम अंग शैली है । भाषा और शैली दो विभिन्न तत्व होते हए भी दोनों का इतना घनिष्ठ संबंध है कि दोनों को एक ही तत्त्व स्वीकार किया जा सकता है । कथा की शैली न तो दर्शनशास्त्र के समान जटिल हो और न कविता के समान आलंकारिक । उसकी भाषा में इतना प्रवाह रहना चाहिए, जिसे वह अवाधरूप से पाठक को प्रादि से अन्त तक अपने साथ ले चले । सरलता और स्वाभाविकता के साथ कथा में कुतूहल की रक्षा हो सके, इस बात का सदा ध्यान रहना चाहिए । सामान्यतः भाषा शैली चार प्रकार की होती है :-- (१) लोकोक्तियों से संपन्न वर्णन--वर्णन सजीव और स्वाभाविक हों, इसके योग्य भाषा-शैली । (२) प्रालंकारिक--अन्तस्सौन्दर्य की अभिव्यंजना करने में समर्थ भाषा । (३) भाव प्रधान-अध्ययन में काव्य का प्रानन्द मिल सके । (४) चित्रमय-चित्रग्राहिणी--शब्दचित्रों द्वारा भावों को मूर्त रूप देने वाली भाषा । शैली को दृष्टि से प्राकृत कथाओं में इतिवृत्तात्मक और मिश्र, इन दोनों का ही प्रयोग हुआ है। वर्णन और विवरणों को इतिवृत्तात्मक ढंग से उपस्थित करना तथा इतिवृत्त के सहारे कथाओं में कथातत्त्वों का नियोजन करना इस शैली का वैशिष्ट्य है । इस प्रकार भोगायतन-स्थापत्य कथा के समस्त अंगों को संघटित और चुस्त बनाता है । भोगायतन-स्थापत्य को कारकसाकल्य स्थापत्य भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार समस्त कारण समूह के मिलने से प्रमाण की उत्पत्ति मानी जाती है, किसी एक कारण की कमी के रह जाने पर भी प्रमाण नहीं हो सकता है, उसी प्रकार समस्त कथाङ्गों के मिलने से ही कथा को समग्रता मानी जाती है । १२। प्ररोचन शिल्प--रुचिसंवर्द्धन के लिए कथाकार जिस स्थापत्य का प्रयोग करता है, वह प्ररोचन शिल्प है । प्राकृत कथा लेखकों ने कथानों में गद्य के बीच पद्य और पद्य के बीच गद्य का प्रयोग कर कथाओं को पर्याप्त रुचिवर्द्धक बनाने का प्रयास किया है। गद्य-पद्यात्मक कथाओं को चम्पू कहना हमारी विनम्र सम्मति के अनुसार उचित नहीं है । प्राकृत कथाओं का यह एक शिल्प विशेष है, जिसके अनुसार कथाकार गद्य में पद्य का प्रयोग और पद्य में गद्य का प्रयोग करते हैं । गद्य के बीच में आने वाले पद्य प्रसंग समर्थित होते है और कथानक की गति में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न करते हैं। चलती हुई घटनाओं के सन्निवेश को वैविध्य देने के लिए भी कथाकार इस पद्धति का आलम्बन ग्रहण करता है । चम्पू काव्य विधा का उल्लेख भामह, दंडी, वामन आदि प्राचीन प्राचार्यों के काव्य ग्रंथों में मिलता अवश्य है। दंडी ने “गद्य-पद्यमयी काचिच्चम्पूरित्यभिधीयते । कहा है । संस्कृत साहित्य में ८वीं शती के पहले का कोई भी चम्पू-काव्य उपलब्ध नहीं है और न इसके पहले इस विधा का पृथक् अस्तित्व ही मिलता है । अतः गद्य-पद्यात्मक प्राकृत कथाओं को चम्पू के अन्तर्गत मानना उचित नहीं है । चम्पूकाव्य विधा का सम्बन्ध रस - - - -- - - - १-.-काव्यादर्श १। ३१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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