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________________ १३२ दूसरी वस्तुवता आहार्या -- कवि कौशल द्वारा निर्मित होती है । कवि या लेखक नवीन नवीन वस्तुओं की कल्पना करता है और अलौकिक वर्णनों द्वारा कथा या काव्य को रमणीय बनाता है । १० | मंडनशिल्प - - कथा के वातावरण को समृद्धिशाली बनाने के लिये श्रेष्ठी व भव, नगर वैभव, देश वैभव, राजप्रासाद, देवप्रासाद प्रभूति के वर्णनों का निरूपण मंडनशिल्प की तरह करना मंडनशिल्प है । इस स्थापत्य का प्रयोग सभी प्राकृत कथाओं में हुआ है । आगमकालीन कथाओं में उपासक दशा में आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों के वैभव का बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है । ये करोड़ों स्वर्णमुद्राएं अपने सुरक्षित कोष में रखते थे, करोड़ों स्वर्णमुद्राएं व्यापार में लगाते थे और करोड़ों स्वर्णमुद्राएं ब्याज पर लगाते थे । इनके पास सहस्त्रों गायों के अनेक गोकुल थे । इनके वैभव और राजसी ठाट-बाट का बड़ा सुन्दर वर्णन किया गया है । ये सभी वर्णन कथा - प्रवाह को मंडित करते हैं, उसे सुशोभित करते हैं । शालिभद्र की कथा में बताया गया है कि महाराज के घर पहुंचे तो उसके स्वागत की तैयारी में उसकी मां ने लेकर अपने घर तक के राजमार्ग को सजाने की व्यवस्था की । बल्लियां खड़ी की गईं और उनपर आड़े बांस डालकर खस की टट्टियां बिछाई गई । उनके नीचे द्रविड़ देश के बने मूल्यवान वस्त्रों के चंदोवे बांधे गये । हारावलियों को लटकाकर कंचुलियां बनाई गई । जालियां बनाकर उनमें वैडूर्य लटकाए गए। स्वर्ण के के बांधे गए। पंचवर्ण के विभिन्न प्रकार के पुष्पों द्वारो पुष्पगृह बनाए गये । बीच-बीच में सौन्दर्य उत्पन्न करने के लिये तोरण लटकाए गए। सुगन्धित जल पृथ्वी पर सिंचित किया गया । पद-पद पर कालागुरु आदि धूप से महकती धूपदानियां रखी गईं । पहरा देने के लिये शस्त्रधारी पुरुष नियुक्त किये गये । स्थान-स्थान पर मंगलोपचार करने वाली विलासिनोस्त्रियों द्वारा गीत-वादित्र आदि के साथ नाटकादि का प्रबन्ध किया गया । श्रेणिक जब शालिभद्र राजमहल के सिंहद्वार से पहले बड़ी लम्बी-लम्बी कोठी में प्रवेश करने पर महाराज श्रेणिक ने दोनों ओर बनी हुई घोड़ों की घुड़साल देखी। इसके पश्चात् शंख और चमरों से अलंकृत हाथी और कलभों को देखा । भवन में प्रवेश करने पर पहली मंजिल में मूल्यवान् वस्तुओं के भंडार, दूसरी में दासी दासों के रहने और भोजनपान की व्यवस्था, तीसरी में स्वच्छ और सुन्दर वस्त्रों से सज्जित रसोई बनाने वाले पाचक और उनके द्वारा की गई भोजन की तैयारियां, इसी मंजिल में दूसरी ओर ताम्बूल, सुपारी, कस्तूरी, केशर आदि पदार्थों द्वारा मुखभूषण ताम्बूल को लगाने की तैयारी करने वाले ताम्बूल वाहक, एवं चौथी मंजिल में सोने, बैठने और भोजन करने की शालाएं, दालान और पास के अपवरकों में नाना प्रकार के भांडागार देखे | पांचवी मंजिल में सुन्दर उपवन था, जिसमें सभी ऋतुओं के फल-पुष्पों से लदे हुए पुन्नाग, नाग, चम्पक प्रभृति सहस्रों प्रकार के वृक्ष और अनेक प्रकार की लताएं थीं । इस उपवन के मध्य में क्रीड़ापुष्करिणी थी, जिसके ऊपर का भाग आच्छादित था । पार्श्ववर्ती दीवालों, स्तम्भों, और छज्जों में लगे हुए रत्न अपना अपूर्व सौन्दर्य विकीर्ण कर रहे थे । इन मणियों से निकलने वाला पंचरंगी प्रकाश जल को रंग-बिरंगा बना रहा था । चन्द्रमणियों से आसपास की वेदी बनाई गई थी । इस जलाशय में किसीनटवोल्ट का प्रयोग किया गया था, जिससे सरोवर का जल बाहर निकाला जाता था । राजा श्रेणिक महारानी चलना सहित पुष्करिणी में स्नान करने के लिये प्रविष्ट हुआ । नाना प्रकार की जलक्रीड़ा करने के उपरान्त राजा पुष्करिणी से बाहर निकला । विलेपन के लिए गोशीर्ष आदि सुगन्धित वस्तुएं और पहनने के लिये बहुमूल्य वस्त्र अर्पित किये गये । Jain-Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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