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________________ १३१ इसके लिये कथाकारों ने कोई आयास नहीं किया । चरम बिन्दु का अभाव तो प्रायः सभी प्राचीन कथाओं में है । यों तो कथाकार अपनी कथा का अन्त कहीं न कहीं करता ही हैं, पर इस अन्त में आधुनिक युग के कथा साहित्य के समान किसी खास पद्धति का अवलम्बन नहीं लिया जाता है । घुणाक्षर न्याय से आरम्भ और अन्त में किसी खास शैली या पद्धति का अवश्य ही प्रस्फुटन हो जाता है । प्राकृत कथाओं में इतिवृत्त अधिक प्रसारमय होता है और इनमें कारण कार्य परिणाम का विधिवत् एवं क्रमिक संयोजन होता चलता है । कुछ परिस्थितियों से संगठित होकर कथानक का स्वरूप तीव्रगति से उत्कर्ष की ओर जाता है और वहां पहुंचकर अपने पूर्ण वैभव का प्रसार करता है । ९। वर्णन क्षमता -- निर्लिप्त भाव से कथा का वर्णन करना और वर्णनों में एकरसता या नीरसता को नहीं आने देना वर्णन क्षमता में परिगणित है । चरित्र-चित्रण की सफलता भी वर्णन प्रक्रिया पर निर्भर है । वर्णनात्मक दृश्यों को प्रभावशाली बनाने में लेखक को पर्याप्त सावधानी रखनी पड़ती है । अतः चरित्र विश्लेषण, वृत्ति विवेचन आदि कार्य उसे वर्णन द्वारा ही करना है । वर्णन में निम्न बातों पर प्राकृत कथाकारों न विशेष ध्यान दिया है :11 (१) संक्षिप्त और प्रसंगोचित वर्णन । (२) मूल कथावस्तु के वर्णन के साथ कयोत्थप्ररोह द्वारा अन्य कथाओं का वर्णन | (३) वातावरण का नियोजन । (४) मनोनीत पात्रों को घटनास्थल पर ले जाना और वहां प्रसंग उपस्थित कर जन्म-जन्मान्तरों का वर्णन । (५) पौराणिक योजनाओं का निरूपण । (६) कुतूहलपूर्ण घटनाओं का वर्णन । (७) आदर्श चरित्रों की स्थापना के लिये विकारों और धर्मतत्त्वों का वर्णन । (८) इतिवृत्तों को साथ परिवेशों की कल्पना और उनका हृदय ग्राह्य वर्णन | ( ९ ) श्रृंगारिक वैभव को चित्रण एवं तीव्र मनोरागों की अभिव्यक्ति में प्रभावोत्पादक वर्णन । (१०) वाक्यावली को संक्षिप्त कर भावों को द्रुतगति से उन्मेष करते हुए वर्णन । (११) भावप्रधान, मार्मिक और गंभीर स्थलों के वर्णन में सशक्त और प्रभावोत्पादक वर्णन | (१२) राजवैभव, रमणी - विलास एवं प्राकृतिक भव्यता के चित्रण में अलंकृत वर्णन । (१३) आवश्यकतानुसार वर्णन में छोटे-छोटे वाक्यों का चयन । (१४) पौराणिक संकेतों में आयासजनक लम्बे वर्णन । (१५) पदार्थों, घटनाओं और पात्रों के स्वभाव का वर्णन । (१६) वस्तुवत्रता - - इसके दो रूप हैं । पहली वस्तुवक्रता वह है, जिसमें कथाकार जिस वस्तु का वर्णन करता है, उसके अत्यन्त रमणीय स्वभाव, सौकुमार्य का सर्वतोभद्र उन्मीलन करता है । वस्तु सौकुमार्य को अक्षुण्ण रखने के लिये वह ऐसे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करता है, जिससे वर्णन का दृश्य चर्मचक्षुओं के समक्ष उपस्थित हो जाता है । इस प्रकार की वस्तुवता का निदान कथाकार की वह स्वतन्त्र शक्ति है, जो प्रसंग के औचित्य से वस्तुओं के स्वाभाविक सौन्दर्य की साम्राज्य रचना करना चाहती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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