SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ इससे स्पष्ट हैं कि भाव से अधिक महत्व उसके प्रकाशन का है ! प्रकाशन प्रक्रिया को शैली का नाम दिया जाता है । स्थापत्य वह सर्वांगीण प्रक्रिया है, जिसमें अनुभूति और लक्ष्य के साथ कथावस्तु की योजना, चरित्र अवतारणा, परिवेश कल्पना एवं भाव सघनता का यथोचित रूप में प्रकाशन किया जाय । भारतीय साहित्य शास्त्र में लगभग स्थापत्य के अर्थ में सर्वप्रथम वृत्ति और पश्चात् रोति शब्द प्रचलित रहे हैं । भरतमुनि ने वृत्ति को काव्य की माता माना है और इसे orage या पुरुषार्थ साधक व्यापार कहा है । उद्भट ने वृत्ति को अनुप्रास- जाति माना हैं और इसमें वर्ण व्यवहार की प्रधानता बतलायी है । रुद्रट ने काव्यालंकार में वृत्ति को समास आश्रित कहा है । मम्मट ने काव्य प्रकाश में उद्भट के अनुसरण पर वर्णव्यवहार पर आश्रित मान कर वृत्तियों को रीति के अन्तर्गत स्वीकार किया है । रीति का सबसे पहले उल्लेख भामह ने किया है । दण्डी ने इसकी परिभाषा दी हूँ, पर इसकी वास्तविक व्यवस्था वामन ने की है । इन्होंने विशिष्टा पदरचना रीति' बताया है कि शब्द तथा अर्थगत चमत्कार से मुक्त पदरचना का नाम रीति ह । वामन के पश्चात् आनन्दवर्धन ने इसको संघटना नाम दिया है । इन्होंने अपने मत का fadar करते हुए लिखा है कि संघटना तीन प्रकार की होती है--असमासा, मध्यमसमासा और दीर्घसमासा । यह संघटना माधुर्यादि गुणों के आश्रय से स्थित रसों को अभिव्यक्त करती है। आनन्दवर्धन के अनुसार रीति केवल एक शैली है, जिसका आधार समास यह गुणाश्रयी होकर रसाभिव्यक्ति का माध्यम है । अतः रीति वर्गीकरण के आधार तत्व दो हैं--समास और गुण । अग्निपुराण के आधार पर रीति का उद्देश्य स्थापत्य है । इसके अनुसार समास उपचार - लाक्षणिक प्रयोग और मार्दव मात्रा ये तीन आधार तत्व हैं । वैदर्भी, गौडी और पांचाली ये तीनों शं लियां हैं । कथा, आख्यायिका या प्रबन्धकाव्यों में इन तीनों शैलियों का प्रयोग किया जाता है । आशय यह है कि स्थापत्य में वृत्ति या रीति का समावेश हो सकता है । किन्तु वृत्ति या रीति मात्र स्थापत्य नहीं है । स्थापत्य में भाव और अभिव्यक्ति प्रकार ये दोनों ही गर्भित हैं । भर्तृहरि ने "सिद्ध शब्दार्थ-सम्बन्ध" में जिस तथ्य की अभिव्यंजना की है, उसी को सर बाल्टर रेल न े अपनी लोकप्रिय शैली नामक पुस्तक में बताया है -- " साहित्य का कार्य द्विविध है --अर्थ के लिए शब्द ढूंढना और शब्द के लिये अर्थ ढूंढना | अतः भाव से भिन्न स्थापत्य की स्थिति नहीं हो सकती । प्राकृत कथाओं के स्थापत्य के संबंध में कुछ उल्लेख प्राकृत कथाओं में उपलब्ध हैं । कुवलयमाला में बताया गया है कि सुन्दर अलंकारों से विभूषित, सुस्पष्ट मधुरालाप और भावों से नितान्त मनोहरा तथा अनुरागवश स्वयमेव शय्या पर उपस्थित अभिनवा १ - - काव्यालंकार सूत्रवृत्ति १।२७। २ -- ध्वन्यालोक ३५, ३६ । 3--To find words for a meaning ani to find a meaning for word-Style, page 63. ४ -- सालंकारा सुहया ललिय-पया मउय-मंजु-संलावा । सहियाण देइ हरिसं उब्बूढा गव-हू चेव ॥ सुकइ कहा - हय-हिययाण तुम्ह जइ विहुण लग्गए एसा । पौढा-रयाओ तह विहु कुणइ विसेसं णव बहुव्व || कु० पू० ४ अ० ८ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy