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________________ या परसिद्धान्त का खंडन कर जीवन के संवेगों को प्रकट करता है, उसी प्रकार विक्षेपिणी कथा में प्रधान रूप से परपक्ष में दोष दिखलाया जाता है जो मान्यता या परम्पराएं व्यक्ति या समाज को पथविचलित करती हैं, उनका निराकरण कथा के माध्यम से करना) विक्षपिणी कथा का उद्देश्य है। इस शली म वातावरण का नियोजन करने में कथाकार को विशेष सावधान रहना पड़ता है। उसे इस बात की महती आवश्यकता है कि कथाकार के पद पर ही आरूढ़ रहे। ऐसा न हो कि वह उपदेशक बन जाये या कथा के अनुकूल वातावरण का संयोजन ही न कर सके। इस प्रकार की कथाएं मात्र प्रतिक्रियात्मक ही नहीं होती है, बल्कि उनके द्वारा किसी खास निष्पत्ति की सिद्धि भी की जाती है। इन कथाओं का प्रभाव भी पाठक पर गहरा ही पड़ता है । यद्यपि इतना सत्य है कि इस प्रकार की कथाओं में संवेदनाओं और मनोदशाओं की तीव्रता उतनी नहीं रह पाती है, जितनी मिश्र कथाओं में रहती है, तो भी मानसिक तनावों का अभाव नहीं माना जा सकता है। (संवेदिनी कथा का अन्त सदा वैराग्य में होता है। कथाकार श्रृंगार या वीर रस से कथा का आरम्भ करता है और अन्त विरक्ति में दिखलाता है। अन्त दिखाने की प्रक्रिया का वर्णन तथा कथा की शैली का प्रतिपादन दशवकालिक में निम्न प्रकार किया गया है-- आयपरसरीरगया इहलोए चेव तहाय परलोए एसा चउम्विहा खलु कहा उ संवेयणी होइ। वीरिय विउव्विणिढ्ढी नाणचरणदसणाण तह इड्ढी। उवइस्सइ खलु जहियं, कहाइसंवेयणीइरसो' ॥ तं जहा-आयसरीरसंवेयणी, परसरीरसंवेयणी, इहलोयसंवेयणी, परलोयसंवेयणी, तत्थ आय सरीरसंवेयणी जहाजमेयं अम्हच्चयं सरीरयं एवं सुक्कसोणियमंसव सामेदमज्जण्हिासचम्म-केसरोमणहदंतअंतादि संघायणिफ्फण्णतणेण--एसा परलोयसंवेयणी गयत्ति । आत्मशरीर संवेगिनी, परशरीर संवेगिनी, इहलोक संवेगिनी और परलोक संवेगिनी। (अपने शरीर की अशुचिता--शुक्र, शोणित, मांस, वसा, मेद, अस्थि, स्नायु, चर्म, केश, रोम, नाक, दन्त आदि के संघात स्वरूप मलमूत्र भरे अपने शरीर की अशुचिता का वर्णन कर श्रोता के मन में विरक्ति उत्पन्न करना प्रात्मशरीर संवेगिनी कथा है। अन्य व्यक्ति के शरीर को मांस, शुक्र, शोणित, चर्बी, अस्थि, चर्म आदि का संघात कहकर मलमूत्र युक्त अशचि बतलाना परसंवेनीधर्मकथा है इस संसार के सभी सुख केले के स्तम्भ के समान निस्सार है। इस प्रकार संसार के सुखों की असारता और अनित्यता का वर्णन कर श्रोता के मन में विरक्ति उत्पन्न करना लोक-संवेगिनी कथा है देव भी ईर्ष्या, विषाद, मद, क्रोध और लोभादि से अभिभूत होकर कष्ट प्राप्त करते हैं फिर मनुष्य और तिर्यचों को क्या बात ! इस प्रकार का प्रभावोत्पादक वर्णन कर श्रोताओं को विरक्त) करना परलोक संवेगिनी कथा है। ये कथाएं विषय की दृष्टि से गम्भीर होने पर भी १--"विक्षेपिणों कथां तज्ज्ञः कुर्याद् दुर्मतनिग्रहे"--जि०महा०प्र०प०श्लो० १३५ । तथा--तत्थ अक्खे वणी मणोणुकूला, विक्खे वणी मणो-पडिकूला, संवेग-जणणी णाणुप्पत्तिकारणं, णिव्वेय-जणणी उण वेरग्गुप्पत्ती। भणियं च गुरुणा सुहम्मसामिणा। अक्खे वणि अक्खित्ता पुरिसा विक्खे वणीए विक्खित्ता। संवेयणि संविग्गा णिविण्णा तह चउत्थीए ।।--उद्यो० कुव०, पृ० ४, अ० ९ । २--दश० गा० १९९-२००, पृ० २१९ । ३-- दश० हारि०, पृ० २२३-२२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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