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________________ ११० आयारे ववहारे पन्नती चेव दिट्ठीपाए य । एसा चउव्विहा खलु कहाउ अक्खवणो होइ' ॥ चारों प्रकार के पुरुषार्थों का निरूपण करने वाली धर्मकथा के चार भेद हैं । आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगिनी और निर्वेदिनी । आक्षेपिणी' कथा में चार बातें प्रमुख रूप से रहती हैं--आचार, व्यवहार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद । आचार के अन्तर्गत लोक व्यवहार, मुनि और गृहस्थों के रहन-सहन, सदाचार मार्ग आदि परिगणित हैं । व्यवहार के अन्तर्गत प्रायश्चित, दोषों का परिमार्जन, भूलों और प्रमादों के लिए पश्चाताप आदि हैं । प्रज्ञप्ति में संशयापन्न व्यक्ति के संशय को मधुर वचनों के द्वारा निराकरण करना, दुखी और पीड़ित व्यक्ति को सान्त्वना देना, विपरीत आचरण वाले के लिए मध्यस्थ भाव रखना तथा समस्त प्राणियों के साथ मित्रता का व्यवहार करना परिगणित है । ष्टिवाद में श्रोता की अपेक्षा सूक्ष्म, गूढ़ और हृदयग्राही भाव एवं संवेदनाओं का निरूपण करना अभिप्रेत है । आक्षेपिणी कथा का रस विद्याज्ञान, चारित्र्य, तप, पुरुषार्थकर्मशत्रुओं के प्रति स्वपराक्रम का उत्कर्ष, समिति - प्रमादत्याग, गुप्ति प्रवृत्तियों का शुद्धीकरण के द्वारा निस्यन्द होता है । आक्षेपिणी कथा को आजकल को प्रभावप्रधान कहानी माना जा सकता है । प्रभावप्रधान कहानियों में घटना, चरित्र, वातावरण, परिस्थिति आदि का कोई विशेष महत्व नहीं होता है। ये सब उपकरण के रूप में आते हैं । इनका लक्ष्य एक प्रभाव को जन्म देना है । इस कोटि की कथाओं की कला किन्हीं विशेष प्रकार के संवेदनों को उत्पन्न करने के लिए पूर्ण क्षमता रखती हैं । जिस प्रकार संगीत कला में गाने का कुछ भी महत्त्व नहीं, परन्तु उसके द्वारा पड़ने वाले प्रभाव का ही महत्व होता है, उसी प्रकार आक्षेपिणी कथाओं में प्रभाव का ही महत्व होता है । यों तो इन कथाओं में चिरन्तन सत्य की उद्घोषणा ही प्राप्त होती है । चारित्र्य का उन्नत धरातल पाठक के समक्ष अद्भुत आकर्षण उत्पन्न करता है । विक्षेपण कथा के चार भेद हैं- कहिउण ससमयं सो कहेइ परसमयमहविवच्चासा । मिच्छा सम्भावाए एमेव हवन्ति दो भेया । जा ससमयवज्जा खलु होइ कहा लोगवेय संजुता । पर समयाणं च कहा एसा विक्ख वणी नाम ॥ विक्खेवणी सा चउब्विहा पण्णता, तं जहा ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ, परसमयं कत्ता ससमयं कहेइ, मिच्छावादं कहेत्ता सम्मावादं कहेइ, सम्मावादं कहता मिच्छावादं कहे ॥ अर्थात् ( १ ) स्वशास्त्र का कथन कर परशास्त्र का कथन करना, ( २ ) परशास्त्र का निरूपण कर स्वशास्त्र का कथन करना, (३) मिथ्यात्व कहकर सम्यक्त्व का कथन करना और ( ४ ) सम्यक्त्व का कथन कर मिथ्यात्व का विवेचन करना । ये चारों विक्षेपिणी कथा को प्रतिपादित करने की शैलियां हैं। जिस प्रकार आजकल कथाकार किसी अभीष्टवाद की सिद्धि के लिए अपने से प्रतिकूलवाद का प्रत्याख्यान करता है और परपक्ष या १ - - दश०गा० १९३-१९५, पृ० २१९ । तथा -- अपने मत की स्थापना के लिए मनोरंजक शैली में आक्षेपिणी कथा लिखी जाती हैं । " तत्थ अक्खे वणी मणोणुकूला " -- उद्योतन सूरि कुव०, पृ० ४, अ० ९ । ------- - आक्षेपिणी कथां कुर्यात्प्राज्ञः स्वमतसंग्रहे । ३- दश०गा० १९६-१९७, पृ० २१९ । ४- दश०हा० प० २२१ । Jain Education International --- जिनसेन महा०प्र०प०इलो० १३५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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